89. मार्मिक भेंट रात बीत गई थी । बड़ा सुन्दर प्रभात था । रात - भर सो चुकने के बाद अब सोम का मन बहुत हल्का था , पर गहन चिन्तना से उनका ललाट सिकुड़ रहा था । भविष्य के सम्बन्ध में नहीं, बीते हुए गिनती के दिनों के सम्बन्ध में । भाग्य ने उन्हें कैसे खेल खिलाए थे । खिड़की से छनकर प्रभात का क्षीण प्रकाश उनकी शय्या पर आलोक की रेखाएं खींच रहा था और वह सुदूर नीलाकाश में टकटकी बांधे मन्द स्मित कर रहे थे। शम्ब उनके पैरों के पास चुपचाप बैठा था । बहुत - सा रक्त निकल जाने से उनका घनश्याम वर्ण मुख विवर्ण हो रहा था , फिर भी वह अपने स्वामी के चिन्तन से सिकुड़े हुए ललाट को देख - देख मन- ही मन उद्विग्न हो रहा था । इसी समय जीवक कौमारभृत्य ने आकर कहा - “ महाराजाधिराज अभी आपको देखा चाहते हैं , भन्ते सेनापति ! ” । सोम तुरन्त तैयार हो गए। मुंह से उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा । विदूडभ एक छोटी शय्या पर लेटे हुए थे। सोम ने शय्या के निकट पहुंचकर कहा- “ अब देव कोसलपति का मैं और क्या प्रिय कर सकता हूं ? " विदुडभ अब भी बहुत दुर्बल थे। उन्होंने स्निग्ध दृष्टि से सोम की ओर देखा और दोनों हाथ उनकी ओर पसारकर धीमे स्वर से कहा - “मित्र सोम , अधिक कहने के योग्य नहीं हूं। परन्तु मित्र, कोसल का यह राज्य तुम्हारा ही है। " - “ सुनकर सुखी हुआ महाराज ! मेरी अकिंचन सेवाएं कोसल और कोसलपति के लिए सदा प्रस्तुत रहेंगी । " विदुडभ ने अर्द्धनिमीलित नेत्रों से सुदूर नीलाकाश को देखते हुए कहा - “मैंने बहुत चाहा था मित्र, कि तुम्हें अपने प्राणों के समान अपने ही निकट रखू, परन्तु महाश्रमण महावीर और माता कलिंगसेना ने यह ठीक नहीं समझा । मित्र , राजनीति ही तुमसे मेरा विछोह कराती है । “ और भी बहुत - कुछ महाराज ! परन्तु राजनीति मानव - जनपद की चरम व्यवस्था है । उसके लिए हमें त्याग करना ही होगा। " _ “ सो , मैं प्राणाधिक मित्र को त्याग रहा हूं वयस्य ! ” विदूडभ की आंखों में आंसू भर आए और उन्होंने तनिक उठकर सोम को अंक में भर लिया। सोम के होठ भी कुछ कहने को फड़के, परन्तु मंह से शब्द नहीं निकले । उन्होंने कांपते हाथ से विदूडभ का हाथ पकड़कर कहा - “ कामना करता हूं, महाराज सुखी हों , समृद्ध हों । मैं अब चला महाराज ! ” __ “ कोसल को सब -कुछ देकर मित्र ! ” विदूडभ हठात् शय्या से उठ खड़े हुए । परन्तु जीवक ने उन्हें पकड़कर शय्या पर लिटाकर कहा - “ शान्त हों देव , भन्ते सेनापति फिर आएंगे। "
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