87. आत्मदान राजमहालय के एक सुसज्जित कक्ष में सोमप्रभ शय्या पर पड़े थे। उनके घाव अब भर गए थे, परन्तु दुर्बलता अभी थी । कुण्डनी उनकी शय्या के निकट चुपचाप बैठी थी । शम्ब कक्ष के एक कोने में बैठा स्वामी को चुपचाप देख रहा था । सोम किसी गम्भीर चिन्तना से व्याकुल थे। उनकी चिन्तना का गहन विषय था कि राजनन्दिनी चन्द्रप्रभा को ले जाकर कहां रखा जाय ? वे उससे विवाह करने के भी अधिकारी हैं या नहीं ? क्या उन जैसे अज्ञात - कुलशील व्यक्ति का इतने बड़े राज्य के अधिपति की पुत्री से विवाह करना समुचित होगा ? विशेषकर उस दशा में , जबकि वही राजकुमारी के पिता के हन्ता , उनके राज्य के हर्ता और राजनन्दिनी की विपत्ति के आधार थे! उन्हें क्या राजकुमारी की अवश अवस्था और परिस्थिति से ऐसा अनुचित लाभ उठाना चाहिए ? यदि यह परिस्थिति न उत्पन्न हो जाती तो क्या चम्पा - राजनन्दिनी उन्हें प्राप्त हो सकती थी ? क्या स्वार्थवश उन्हें राजनन्दिनी का अहित करना उचित है ? यही सब विचार थे , जो उन्हें उद्विग्न और विचलित कर रहे थे । इसी समय महाश्रमण भगवान् महावीर वहां आ उपस्थित हुए । कुण्डनी ने आसन पर बैठकर उनका अभिवादन किया । श्रमण महावीर ने कहा - “ भद्र सोमप्रभ , मैं तेरे ही लिए आया हूं । अपने सुख को देख , पुण्य को देख , मलरहित हो । पुत्र यह शरीर बहु मलों का घर है। इसमें काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, एषणाएं हैं । सो पुत्र, यह समुद्र के समान है। समुद्र में आठ अद्भुत गुण हैं , इसी से असुर महासमुद्र में अभिरमण करते हैं । वह क्रमशः निम्न , क्रमशः प्रवण, क्रमशः प्रारम्भार होता है । वह स्थिर - धर्म है, किनारे को नहीं छोड़ता । वह मृत शरीर को निवास नहीं करने देता , बाहर फेंक देता है । सब महानदी , गंगा , यमुना , अचिरवती , शरभू , मही, जब महासमुद्र को प्राप्त होती हैं तो अपना नाम- गोत्र त्याग देती हैं । और भी पानी , धारा , अन्तरिक्ष का वर्षा जल समुद्र में जाता है, परन्तु महासमुद्र में ऊनता या पूर्णता कभी नहीं होती । वह महासमुद्र एक रस है । वह रत्नाकर है - शंख, मोती , मूंगा , वैदूर्य , शिला, रक्तवर्ण मणि , मसाणगल्ल समुद्र में रहती हैं । वह महासमुद्र महान् प्राणियों का निवास है - तिमि , तिमिंगिल , तिमिर, पिंगल , असुर , नाग, गन्धर्व उसमें वास करते हैं । उनमें सौ योजनवाले शरीरधारी भी हैं , तीन सौ योजन वाले भी हैं , चार सौ योजनवाले भी हैं ।..... “ सो पुत्र , धर्ममय जीवन भी समुद्र की भांति क्रमशः गहरा , क्रमशः प्रवण , क्रमशः प्रारम्भार है, एकदम किनारे से खड़ा नहीं होता । सो धर्मजीवन में क्रमशः क्रिया , मार्ग, आज्ञा और प्रतिवेध होता है । उसी का क्रमशः अभ्यास करने से मनुष्य अनागामी भी होता है । यह जीवन का ध्रुव ध्येय है। सो सोमभद्र, तू महासमुद्र के अनुरूप बन , पुण्य कर और मलरहित हो निर्वाण को प्राप्त कर । "
पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३१८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।