84. नर्म साचिव्य कीचड़ और मिट्टी में लथपथ सोमप्रभ ने सूर्योदय से प्रथम ही घर में प्रवेश किया । उनका अश्व भी बुरी तरह थक गया था । कुण्डनी और नाउन तमाम रात जागती रहकर सोम की प्रतीक्षा करती रही थीं । अब कुण्डनी ने कुछ आश्वस्त होकर , किन्तु संदेह - भरे नेत्रों से सोम को देखा । सोम ने संक्षेप में कहा - “ कुण्डनी , सब देख आया हूं। राजकुमार को छुड़ाना सहज नहीं है । परन्तु चलो , अब हम राजमहिषी से पहले मिल लें । मैं अभी एक मुहूर्त में तैयार होता हूं । तुम भी तैयार हो लो । " - और बातें नहीं हुईं। सोम ने नित्यकर्म से निवृत्त हो खूब डटकर स्नान किया । आपाद श्वेत कौशेय धारण किया । मस्तक पर चन्दन का तिलक लगाया । सिर पर भंगपट्ट बांधा । उत्तरासंग को ब्रह्मचारी की भांति कन्धे पर डालकर कहा - " कुण्डनी, अब इस वेश में खड्ग तो मैं नहीं ले जा सकुंगा। " “ उसकी आवश्यकता नहीं सोम ! " “ क्यों नहीं? शत्रु के अन्तःपुर में छद्मवेश में प्रवेश करना होगा, फिर दिन -दहाड़े ! तू कहती है कि खड्ग की आवश्यकता नहीं ! " " नहीं है सोम! हम शत्रु का उपकार करने उसी की नियुक्ति पर जा रहे हैं । " विशेष बातचीत नहीं हुई। तीनों जन चलकर राजद्वार पर पहुंचे। नाउन ने पुष्प करंडिका और गंगाजल की झझरी सोम के हाथ में दे दी । कुण्डनी और नाउन का द्वारी से परिचय था , अतः उसने मार्ग दे दिया । तीनों टेढ़ी -तिरछी वीथियों को पार करते हुए महिषी कलिंगसेना के हर्म्य में पहुंच गए । आचार्य केसकम्बली वहीं उपस्थित थे । देवी नन्दिनी भी तुरन्त आ उपस्थित हुईं । सोम ने भूमिका न बढ़ाकर कहा - “ आचार्य, राजकुमार कोसल - दुर्ग में बन्दी हैं , वहां से उनकी मुक्ति सहज नहीं होगी ? " " परन्तु सौम्य , तुझे अपना पराक्रम दिखाना होगा । यह तेरी कोसल- राजवंश पर भारी अनुकम्पा होगी। ” नन्दिनी देवी ने आंखों में आंसू भर कहा - “ कोसलगढ़ को मैं जानती हूं भद्र ! महाराज ने वहां मेरे पिता को बन्दी कर दिया था । उन्होंने मेरा समर्पण महाराज को करके अपना उद्धार किया था । ” कलिंगसेना ने दृढ़ स्वर में कहा - “ भद्र, यदि तुम्हें कुछ असुविधा हो तो मैं स्वयं कोसल - दुर्ग में खड्गहस्त जाऊंगी। तुम्हें जो कुछ विदित है, वह कहो। " " नहीं भद्रे, मैं जीवन के मूल्य पर भी राजकुमार का उद्धार करूंगा। ” सोम ने धीरे “साधु, साधु! भद्र , ऐसा ही होना चाहिए । मैं कारायण को तुम्हारी सहायता के से कहा ।
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