" क्या तुमने राजकुमार को मित्र नहीं कहा ? क्या उन्होंने राजकुमारी को धरोहर नहीं कहा ? क्या उन्होंने और राजमाता ने कुमारी की रक्षा करने में हमारी सहायता नहीं की ? क्या तुमने खड्ग छूकर राजकुमार से नहीं कहा था कि मित्र , यह खड्ग तेरी सेवा को सदा प्रस्तुत है ? " सोम ने खड्ग नीचे रख दिया । वे चुपचाप पृथ्वी पर बैठ गए । बहुत देर तक चुप रहने के बाद उन्होंने कहा " कुण्डनी, क्या करना होगा ? " " कर सकोगे ? " “ और उपाय ही क्या है कुण्डनी ? " “ सत्य है, नहीं है । कल तुम्हें महालय में जाना होगा । " “किस प्रकार ? ” “ आचार्य का ब्रह्मचारी बनकर आशीर्वाद देने । " " आचार्य ने क्या ऐसा ही कहा है ? " “ यही योजना स्थिर हुई है। और भी एक बात है। " " क्या ? " “मैंने वचन दिया है कि मैं युवराज की रक्षा करूंगी । तुम यदि न करोगे तो मुझे करनी होगी , सोम ! ” “मैं जब तक जीवित हूं , मैं करूंगा; तुम केवल मेरा पथ -प्रदर्शन करो। शुभे कुण्डनी , मैं तुम्हारा अनुगत सोम हूं। " । “ तो सोम , प्रभात में हमें महालय चलना होगा । सारी योजना वहीं स्थिर की जाएगी। परन्तु अभी हमें एक काम करना है। " " क्या ? " " दीहदन्त के अड्डे पर जाना होगा। " " वह तो बहुत दूषित स्थान है । " “ परन्तु हमें वहां जाना होगा। " " क्यों ? " “ राजकुमार का पता वहीं लगने की सम्भावना है। " " तो मैं वहां जाता हूं। " " नहीं , हम तीनों को जाना होगा। नाउन उस पापी को पहचानती है। " " नाउन क्या इस अभियान में विश्वसनीय रहेगी ? " “ वह सर्वथा विश्वास के योग्य है। " " तब जैसी तुम्हारी इच्छा ! " " तो हम लोग एक मुहूर्त में तैयार होते हैं । अभी एक दण्ड दिन है। ठीक सूर्यास्त के बाद हमें वहां पहुंचना होगा । तब तक तुम भी एक लुच्चे मद्यप का रूप धारण कर लो । " कुण्डनी का यह वाक्य सुनकर सोम असंयत होने पर भी हंस दिया । कुण्डनी चली गई ।
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