पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२८७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कण्ठ की मौक्तिक - माला तोड़कर उसके दाने धूल में बिखेर दिए। सिर का उष्णीष टुकड़े टुकड़े करके फेंक दिया । फिर कहा - “ तो धृष्ट भाकुटिक सेनापति , तू अपने वृद्ध असहाय राजा से जैसा व्यवहार करना चाहता है , कर । " " तो महाराज प्रसेनजित्, आप अपने सेवकों सहित आगे बढ़कर मेरे इन सैनिकों के बीच में आ जाएं । ” महाराज चुपचाप सैनिकों के मध्य में जा खड़े हुए । देवी मल्लिका भी चुपचाप राजा के साथ जा खड़ी हुईं । अनुगमन करती हुईं दासियों को निवारण करते हुए उन्होंने कहा - “ हज्जे , ऐसा ही काल उपस्थित हुआ है। तुम महालय में लौट जाओ और अपने राजा की सेवा करो। मुझे तुम्हारी सेवाओं की आवश्यकता नहीं रही । ” इतना कहकर उन्होंने अपने सब रत्नाभूषण उन्हें बांट दिए । दासियां खड़ी हो रोने लगीं । कारायण ने आगे बढ़कर कहा - “ पट्टराजमहिषी के चरणों में महाराज विदूडभ ने यह निवेदन किया है कि वे महालय में पधारकर अपने अनुगत पुत्र को आप्यायित करें । " । ___ “ पुत्र विदूडभ ने यह अपने योग्य ही कहा , भन्ते सेनापति ! पर मुझे अपना कर्तव्य विदित है । जहां महाराज , वहां मैं । पुत्र विदूडभ से कहना - वह कोसल के यशस्वी आर्यकुल की मर्यादा की रक्षा करें । मैं आशीर्वाद देती हूं - वह यशस्वी हो , वर्चस्वी हो , चिरंजीवी हो ! " राजा ने भी अपने आभरण सेवकों के ऊपर फेंकते हुए कहा - “ भणे, तुम्हारा कल्याण हो । तुम राजसेवक हो । तुमने राजा की सेवा जीवन - भर की । अब यह प्रसेनजित् राजा नहीं रहा , तो उसका सेवकों से क्या काम ? तुम्हारा कल्याण हो । जाओ, राजा की सेवा करो। फिर उन्होंने कारायण की ओर मुंह करके कहा - " तो भाकुटिक सेनापति , अब विलम्ब क्यों ? तू राजाज्ञा का पालन कर । " " तो फिर ऐसा ही हो । " उसने सैनिकों को संकेत किया और वे राजा- रानी के अश्वों को घेरकर चल दिए । दास -दासी खड़े रोते रहे । उस समय प्रतीची दिशा मांग में सिन्दूर भरे कौसुम्बिक चीनांशुक पहने वधूटी - सी प्रतीत हो रही थी । सूर्यकुल - प्रदीप महाराज प्रसेनजित्, मागध-विजयी, पांच महाराज्यों के अधिपति , अर्द्ध- शताब्दी तक लोकोत्तर वैभव भोगकर आज दिनांत में राज्यश्री भ्रष्ट हो अपने ही सेवकों द्वारा बन्दी होकर अदृष्ट विविध और नियतिवश अज्ञात दिशा को चले जा रहे थे।