76. सेनापति कारायण बन्दीगृह में जाकर राजकुमार विदूडभ ने कहा - “ सेनापति , तुम स्वतन्त्र हो , बाहर जाओ। " बन्दीगृह के अन्धकार में कारायण ने विदूडभ को नहीं पहचाना । उसने कहा “ यह किसने मुझे उपकृत किया भन्ते ? " “मैं विदूडभ हूं, मित्र! ” . " राजकुमार , मैं आपका किस प्रकार आभार मानूं? " " पहले इस कलुषित स्थान से बाहर आओमित्र , और बातें पीछे होंगी। " " परन्तु मैं बेड़ियों के बोझ से चल नहीं सकता । ” विडभ ने उसे उठाकर कन्धे पर बैठा लिया । बाहर आकर उन्होंने कहा - “यहां एकान्त में क्षण - भर ठहरो सेनापति! मेरा एक मित्र लुहार निकट ही है, मैं उसे लाकर अभी बेड़ियां कटवाता हूं। " विदूडभ चले गए । लुहार ने आकर बेड़ियां काट दीं । कारायण ने मुक्त होकर राजकुमार को अभिवादन करके कहा - “मैं राजकुमार का अनुगत सेवक हूं । " " क्या आभार -भाराक्रान्त ? "नहीं भन्ते , पहले ही से । ” " परन्तु मित्र, तुम स्वतन्त्र हो , कोई बन्धन नहीं है। " “ मैं आपका अनुगत सेवक हूं कुमार ! " " तो यह तलवार ग्रहण करो मित्र , मैं तुम्हें कोसल - सैन्य का प्रधान सेनापति नियत करता हूं । " " क्या मैं आपको देव कोसलपति कहकर हर्षित होऊं ? " “ यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो यही सही मित्र ! " " तो देव कोसलपति , आपकी क्या आज्ञा है? " “ सेनापति , तुम अभी नगर को अधिकृत कर अपने प्रहरी और चौकियां बैठा दो । " “ जो आज्ञा देव ! और भी ? " " हां , दो सौ अश्वारोही लेकर आज सूर्यास्त के समय नगर - द्वार पर स्वयं उपस्थित रहो । महाराज प्रसेनजित् आज जैतवन में श्रमण गौतम के दर्शन करने को जाएंगे । उन्हें जाने में बाधा देने की कोई आवश्यकता नहीं है, परन्तु जब वे लौटें तो दक्षिण द्वार पर उनका अवरोध करो । उन्हें बन्दी कर लो और एकाकी पूर्वी सीमान्त पर छोड़ आओ। उनके अंगरक्षक विरोध करें तो उन्हें काट डालो। सहायक सेना निकट ही रखो। परन्तु सब काम अत्यन्त चुपचाप होना चाहिए । " " बहुत अच्छा महाराज , ऐसा ही होगा । "
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