पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२८०

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निरन्तर अपने प्रवचनों में यज्ञ -विरोधी भावना प्रकट करते रहते थे और इसके कारण अनेक सेट्टि गृहपति , सामन्त , राजपुत्र और विश यज्ञ के गवालम्भन को लेकर भीतर - ही - भीतर महाराज के प्रति विद्रोही होते जा रहे थे। प्रच्छन्न रूप से राजकुमार विदूडभ और आचार्य अजित केसकम्बली ऐसे लोगों को प्रोत्साहन दे रहे थे। राजधानी में सेनापति मल्ल बन्धुल नहीं थे। उनके बारहों बन्धु - परिजन मारे जा चुके थे । इससे राजा बहुत चिंतित और व्यग्र हो रहे थे। एक ओर जहां समारोह हो रहा था वहां दूसरी ओर भय , आशंका और विद्रोह की भावना ने राजा को अशान्त कर रखा था । गान्धारी नववधू कलिंगसेना से पहली ही भेट में राजा को क्षोभ हो गया था । वे इसके बाद फिर उनसे मिले भी नहीं। परन्तु इस अनिन्द्य सुन्दरी बाला को प्रथम परिचय ही में क्षुब्ध कर देने तथा चम्पा की हाथ में आई राजकुमारी को खो बैठने से वे भीतर - ही भीतर बहुत तिलमिला रहे थे। उधर यज्ञ के विविध अनुष्ठान् , व्रत -नियम , प्रक्रियाओं तथा प्रबन्ध- सम्बन्धी अनेक उलझनों ने उन्हें असंयत कर दिया था । राजकुमार विदूडभ ने इस सुयोग से बहुत लाभ उठाया था । उन्होंने समागत अनेक राजाओं को अपना मित्र बना लिया था । वे उनके सहायक और समर्थक हो गए थे। नगर के जो गृहपति , सेट्टी , पौरजन और निगम राजा पर आक्षेप लेकर आते, उनसे युवराज विदूडभ अपनी गहरी सहानुभूति दिखाते और राजा की मनमानी पर अपनी बेबसी और रोष प्रकट करते थे । इस प्रकार घर - बाहर उनके मित्रों , समर्थकों और सहायकों का एक दल और अनुकूल वातावरण बन गया था । एक दिन अवकाश पाकर उन्होंने आचार्य अजित केसकम्बली से एकान्त में वार्तालाप किया । राजकुमार ने कहा “ आचार्य, अब यह यज्ञ - पाखण्ड और कितने दिन चलेगा? " “ यह पुण्य समारोह है युवराज, सौ वर्ष भी चल सकता है, बारह वर्ष भी और अठारह मास पर्यन्त भी । ” । “ और इतने काल तक राज्य की सारी व्यवस्था इसी प्रकार रहेगी । " " तो कुमार , एक ही बात हो सकती है, या तो राजा स्वर्ग के लिए पुण्यार्जन करें या दुनियादारी की खटपट में रहें । " " बहुत पुण्य - संचय हो चुका, आचार्य! अब अधिक की आवश्यकता नहीं है। " आचार्य हंस पड़े । उन्होंने कहा - “ पुत्र , मैं तुम्हारे लिए असावधान नहीं हूं । " " तो आचार्य, यही ठीक समय है । न जाने बन्धुल सेनापति कब आ जाए। " " अभी आ नहीं सकता , पुत्र ! सीमान्त पर वह जटिल कठिनाइयों में फंसा है । वयस्य यौगन्धरायण ने उसे विग्रह और भेद में विमूढ़ कर दिया है । " “ फिर भी आचार्य, यदि मैं इस समय विद्रोह करूं , तो सफलता होगी ? " “ अभी नहीं , रत्नहोम के बाद । आज द्वितीया है , त्रयोदशी को रत्नहोम संपूर्ण होगा । फिर पन्द्रह दिन खाली जाएंगे, यज्ञ की मुख्य क्रिया नहीं होगी, यजमान की उपस्थिति भी न होगी। इसके बाद आगामी चतुर्दशी को अभिषेक होगा । इसी अवकाश में पुत्र , तुम कार्यसिद्धि करना। अभी मैं सीमान्त से पायासी के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा हूं । " “ क्या आपने कोई योजना स्थिर की है , आचार्य ? "