सखिल भाव से उच्च स्वर से मदोन्मत्त की भांति मुद्रा बनाकर कहा - “ जय , जय ! जय, जय ! मित्तिया जय , जय ! ___ सब मिलकर दोनों को घेरकर नाचने -गाने लगीं । कुण्डनी हंसती रही । पर सोम की मुद्रा देख एक - दो ने उसे छेड़ना आरम्भ किया । कुण्डनी ने रोककर कहा - “ उसे न छेड़ हला , अल्हड़ बछेड़ी है । " सब रहस्य की हंसी हंस दी और उसी भांति गाती-बजाती चल दीं । सोम ने अघाकर सांस ली । दो पहर रात जा चुकी थी । दक्षिण समीर मलयानिल को ला रही थी । उससे वाटिका के सब लता - गुल्म झूमते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो इन सबने भी पी है । कुण्डनी ने अब द्रुतगति से एक हर्म्य की ओर पग बढ़ाया और उस अट्टालिका में घुस गई । वह अनेक अलिंद, कुट्टिम, वीथियां, कोष्ठक , परिवेण, वातायन और मिसिका पार करते हुए उस घर में पहुंचे, जहां चक्कलिका के भीतर राजनन्दिनी अधोमुखी, निश्चल बैठी थीं । कक्ष के भीतर का वातावरण एकदम शान्त था । कोलाहल से परिपूर्ण सम्पूर्ण रंगमहल का जैसे यहां कुछ प्रभाव ही न था । घर के एक कोने में एक नीतिदीर्घ आसन्दी पड़ी थी , उस पर दुग्धफेन के समान प्रच्छदपट ढंका था । उसी के निकट एक भद्रपीठ पर एक अष्टपदक बिछा था , उसी पर सद्यःस्नाता राजनन्दिनी चुपचाप ध्यान- मुद्रा में बैठी थीं । उनके सामने एक वेदिका पर गन्ध , माल्य , चंदन और नैवेद्य रखा था । एक छोटे - से मणिपीठ पर सुगन्धित सिक्थपिटक और सुगन्धित पुटिका रखी हुई थी । उससे तनिक हटकर एक हिरण्यस्तवक में मातुलुंग की छाल और पान के अन्यान्य उपकरण रखे थे। आसन्दी के पदाधान की ओर रजत पतद्गृह रखा हुआ था । एक नागदन्त पर कुरण्डमाल लटकी हुई थी । सोम इस कमनीय मूर्ति को इस अवस्था में देख भाव - मूर्छित हो गया । राजबाला के सम्पूर्ण शरीर से स्वच्छ कान्ति प्रस्फुटित हो रही थी । उसका सद्यःस्नात हिमधवल प्रभापुंज गात्र , शरत्कालीन मेघों से आच्छादित चन्द्रकला- जैसा प्रतीत हो रहा था । वह मूर्तिमती स्वर्ण- मन्दाकिनी - सी , शंख से खोदकर बनाई हुई दिव्य प्रतिमा - सी प्रतीत हो रही थी । जैसे अभी - अभी विधाता ने उसे चन्द्रकिरणों के कूर्चक से धोकर, रजत -रस से आप्लावित करके , सिन्धुवार के पुष्पों की धवल कांति से सजाकर वहां बैठाया हो । उसने पग - आहट पाकर उत्पल के समान बड़ी - बड़ी आंखें उठाकर देखा और सामने दु: ख - संगिनी को देख कुछ कहने को ओठ खोले । परन्तु शब्द निकलने से प्रथम ही कुण्डनी ने ओठों पर उंगली रखकर कुमारी को चुप रहने का संकेत किया । कुमारी ने मिसिका के खंभे का सहारा लिए ऊंघती हुई दासी को कातर दृष्टि से देखा और आंखें नीची कर लीं । उनकी आंखों से झर - झर अश्रुधारा बहने लगी । कुण्डनी ने दासी के निकट जा उसे हिलाते हुए डांटकर कहा - “ भाकुटिका , इसी प्रकार सावधान रहा जाता है ? " दासी हड़बड़ाकर कुण्डनी का मुंह देखने लगी । उसका मुंह सूख गया । कुण्डनी ने कहा - “ कब से तू बैठी है, बोल ? " । " हन्दजे , तीन प्रहर से । सब लोग उधर विवाह के आमोद- प्रमोद में लगे हैं । " " तो जा , तुझे भी छुट्टी देती हूं, भाग, यहां अब मैं हूं। तू भी समारोह देख -माध्वीक
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