पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२६२

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69 . क्रीता दासी हंस के समान उज्ज्वल ज्योत्स्ना से भूलोक ओतप्रोत था । डेढ़ पहर रात्रि जा चुकी थी । आज चन्द्रमा कुछ देर से निकला था , परन्तु अभी तक उसमें उदयकाल की ललाई झलक रही थी । सारा आकाश चांदनी से भरा था । तारे टिमटिमा रहे थे और सान्ध्य समीर ने प्राणियों पर एक अलस निद्रा का प्रभाव डाल दिया था । कुण्डनी के पीछे उसकी सखी के वेश में सोम धीर - मन्थर गति से राजमहालय की ओर बढ़ा जा रहा था । उसे ऐसा जान पड़ रहा था , जैसे प्रकृति में एक अवसाद ओतप्रोत हो रहा है। उसने साहस करके कहा ___ " कुण्डनी , यदि हम सफल न हुए ? " " चुप ! मैं ऐसा कभी नहीं सोचती ? " धीरे - धीरे वे महालय के निकट पहुंच गए । वहां अलकापुरी की सुषमा फैल रही थी । राजमहालय के अन्तःपुर में बहुत भीड़ थी । दासी, चेटी , नागरिकों , राजवधू, गणिका , भद्रा आदि अनगिनत स्त्रियां वहां भरी हुई थीं । सहस्रों सुगन्ध - दीप जल रहे थे और विविध वाद्य बज रहे थे। दास , दासी, सेवक, दण्डधर ,कंचुकी अपने - अपने काम से दौड़- धूप कर रहे थे। परिवेण पार कर जब वे निकट पहुंचे तो देखा - अलिन्द में बहुत - से सशस्त्र प्रहरी ड्योढ़ी की रखवाली कर रहे हैं । कुण्डनी ने वहां निःशंक जाकर एक प्रहरी की ओर उंगली उठाई और सोम की ओर देखकर कहा - "हन्दजे, यही है। इसी चोर ने दासी को उड़ाया है। " प्रहरी कुण्डनी की रूप -ज्वाला और ठाठ से चमत्कृत हो गया । उसने घबराकर कहा - “ कैसी दासी हला ? " इस पर सोम ने यथासाध्य कोमल कण्ठ करके कहा - “ चुप ! इसका विचार महिषी मल्लिका करेंगी । तू उनकी सेवा में चल । " प्रहरी सोम का मुंह ताकने लगा। सोम प्रकाश की आड़ देकर खड़ा हो गया था । कुण्डनी ने फिर डपटकर कहा - “ चल - चल , महिषी की सेवा में चल ! “किन्तु हन्दजे... ” “पाजी, महिषी की आज्ञा है, चल ! प्रहरी को भी रोष आ गया । उसने रूढ़ स्वर में कहा - “मैं चोर नहीं हूं, चलो। " वह अन्तःपुर की ओर चला। पीछे कुण्डनी और सोम चले । अन्तःपुर की पौर पर वे निर्विघ्न पहुंच गए। वहां पौर पर भी प्रहरी थे। कुण्डनी ने उन्हें सुनाकर सोम से कहा - “ हला , तू जाकर देवी को सूचना दे आ , मैं तब तक इस चोर पर पहरा दूंगी । " सोम स्थिर गति से अन्तःपुर में घुस गया । प्रहरियों ने उसे नहीं रोका। वे कुण्डनी को घेरकर खड़े हो गए । कोई उसके कान में लटकते बहुमूल्य हीरक - कुण्डलों को , कोई उन्नत