पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२४८

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व्यापारी ने उनसे कहा - " भन्ते, आपको कैसा दास चाहिए ? इस छोकरे को देखिए कैसे हाथ- पैर हैं , रंग भी काला नहीं है। ” उसने छोकरे के पैरों से शृंखला खोलकर कहा " तनिक नाच तो दिखा रे! " बालक ने डरते -डरते खड़े होकर भद्दी तरह नाच दिखा दिया । व्यापारी ने फिर कहा - “ गाना भी सुना । " उसने दासों का गीत भी गा दिया । व्यापारी हंसने लगा । जीवक ने कोने में सिकुड़ी हुई बैठी युवती की ओर उंगली उठाकर कहा - “ उस युवती दासी का क्या मोल है भणे ! ” व्यापारी ने हंसकर हाथ मलते हुए कहा - “ आप बड़े काइयां हैं भन्ते , असल माल टटोल लिया है। बड़ी दूर से लाया हूं, दाम भी बहुत दिए हैं । व्यय भी करना पड़ा है। संगीत , नृत्य और विविध कला में पारंगत है। भोजन बहुत अच्छा बना सकती है, अनेक भाषा बोल सकती है । रूप - सौन्दर्य देखिए... ” उसने दासी को अनावृत करने को हाथ बढ़ाया । परन्तु जीवक ने कहा - “रहने दे मित्र , दाम कह। " “ साठ निष्क से एक भी कम नहीं। " " इतना ही ले । " जीवक ने स्वर्ण- भरी थैली उसकी ओर फेंक दी । व्यापारी ने प्रसन्न हो और दासी के निकट जाकर उसकी शृंखला खोलते हुए कहा - “ भाग्य को सराह, ऐसा मालिक मिला । दासी ने कृतज्ञ नेत्रों से जीवक को देखा और उसके निकट आ खड़ी हुई । जीवक ने उसे अपने पीछे-पीछे आने का संकेत किया तथा मित्र से बातें करता हुआ अपने आवास की ओर आया । इसी समय और भी बहत - से दास और दासियां बिकने के लिए हट्ट में आए। पणजेट्ठक ने सबके मालिकों के नामपट्ट देखे, शुल्क लिया और एक - एक करके शृंखला उनके पैरों में डाल दी । इन दास - दासियों में बूढ़े भी थे, जवान भी थे, अधेड़ भी थे, लड़कियां भी थीं । सत्तर साल की बुढ़िया से लेकर चार वर्ष तक की लड़की थी । एक दस वर्ष की लड़की कराह रही थी । कल इसकी मां बिक चुकी थी और यह मां - मां चिल्ला रही थी । वह सत्तर साल की बुढ़िया वातरोग से गठरी- सी बनी लगातार रो रही थी । उसके पांच- छ: लड़के लड़कियां लोग खरीद ले गए थे। वह तीन - चार दिन से हट्ट में बिकने को आ रही थी , पर कोई उसका खरीदार ही नहीं खड़ा हो रहा था । दो औरतें एक - दूसरी से चिपटी बैठी थीं । एक की 45 वर्ष की आयु होगी, दूसरी 15 वर्ष की थी । दोनों मां - बेटियां थीं । उनके कपड़े लत्ते साफ - सुथरे और अंग कोमल थे। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने परिश्रम नहीं किया था । ये एक श्रोत्रिय ब्राह्मण के यहां से आई थीं । दोनों पढ़ी-लिखी थीं । एक सामन्त ने उन्हें ब्राह्मण को यज्ञ की दक्षिणा में दिया था । ब्राह्मण ने उनके स्वर्णाभरण उतारकर उन्हें बेचने को हट्ट में भेज दिया । दासों को देखने और उनका क्रय-विक्रय करनेवालों की हट्ट में बड़ी भीड़ हो रही थी । उसी भीड़ में एक ओर सोम चुपचाप खड़े तीव्र दृष्टि से एक - एक करके दासों को देख रहे थे। उनका चेहरा पीला पड़ गया था और उस पर श्री नहीं रह गई थी । इतने ही में किसी ने