पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२४७

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“ पर इतना - सा तो है। काम - लायक बड़ा होने तक खिलाना-पिलाना होगा , जानते हो ? मैं दस कार्षापण दे सकता हूं। " “ क्या दस ? अभी नहीं, और छः महीने बाद पचास में बिकेगा। " “ और जो मर गया तो माल से भी जाओगे । मान जाओ, पन्द्रह कार्षापण ले लो । " “ अच्छा बीस पर तोड़ करिये । बहुत खरा माल है, कैसा गोरा रंग है ! ” । ग्राहक कार्षापण गिनने लगा तो स्त्री ने आंखों में भय और आंसू भरकर कहा - “मुझे भी खरीद लीजिए भन्ते! " व्यापारी ने हाथ का चाबुक उठाकर कहा - " चल - चल, ग्राहक को तंग न कर। " उसने खींचकर बालक को ग्राहक के हाथ में दे दिया । बालक रोने लगा , उसकी मां मूर्छित हो गई । व्यापारी ने कहा - “ अब इस अवसर पर अपना माल लेकर चल दीजिए, होश में आने पर यह और टंटा खड़ा करेगी । " ग्राहक सिसकते हुए बालक को लेकर चला गया । थोड़ी देर में स्त्री ने होश में आकर शून्य दृष्टि से अपने चारों ओर देखा । दास -विक्रेता ने पास आकर कहा - “चिन्ता न कर , जिसने खरीदा है भला आदमी है, लड़का सुख से रहेगा और तेरा भी झंझट जाता रहा। " स्त्री भावहीन आंखों से देखती रही । उसके होंठ हिले , पर बोल नहीं निकला। वह सिर से पैर तक कपड़े से शरीर ढांपकर पड़ी रही । एक बूढ़े ब्राह्मण ने आकर कहा - “ एक दासी मुझे चाहिए । " " देखिए , इतनी दासियां हैं । यवनी चाहिए या दास ? " "दास। ” “ तब यह देखिए। " उसने एक तरुणी की ओर संकेत किया । वह चुपचाप अधोमुखी बैठी रही । व्यापारी ने कहा - “ चार भाषा बोल सकती है आर्य! रसोई बनाना और चरणसेवा भी जानती है, अभी युवती है। ” यह कहकर उसने उसे खड़ा किया । युवती सकुचाती हुई उठ खड़ी हुई । ब्राह्मण ने साथ के दास से कहा - “ देख काक , दांत देख , सब ठीक -ठाक हैं ? " ब्राह्मण के क्रीत दास ने मुंह में उंगली डालकर दांत देखे और निश्शंक वक्षस्थल में हाथ डालकर वक्ष टटोला । कमर और शरीर को जगह - जगह से टटोलकर , दबाकर देखा और फिर हंसकर कहा - “ काम लायक है मालिक , खूब मज़बूत है । " व्यापारी ने हंसकर कहा - “ मैंने पहले ही कहा था । परन्तु भन्ते , मूल्य चालीस निष्क से कम नहीं होगा। " " इतना बहुत है, तीस निष्क दूंगा । " " आप श्रोत्रिय ब्राह्मण हैं , मुझे उचित है कि आप ही को बेचूं। ” उसने हंसते-हंसते यवती के पैर की शृंखला खोल दी । ब्राह्मण ने स्वर्ण गिन दिया और दास से कहा- “ लेखपट्ट ठीक -ठीक लिखाकर दासी को ले आ । ” वे चले गए । __ काक ने सब लिखा - पढ़ी कराकर दासी से कहा - “ चल - चल , घबरा मत , हमीं तेरे मालिक हैं , भय न कर । ” दासी चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल दी । जीवक कौमारभृत्य घूर - घूरकर प्रत्येक दासी को देख रहे थे। अब अवसर पाकर