“ यह आप क्या कह रहे हैं आचार्य ? " " अरे पुत्र , तुम कहां से बलि ग्रहण करोगे? कहां से सैन्य - संग्रह करोगे ? वाणिज्य व्यापार कैसे चलेगा ? सभी तरुण तो भिक्षु हो जाएंगे ! सभी संपदा तो उसी शाक्य श्रमण के चरण चूमेगी! तब तुम श्री , शक्ति रोष और सैन्यहीन राजा राज्य -संचालन कैसे करोगे आयुष्मान्? " " आपके कथन में सार प्रतीत होता है आचार्य! " " इसे रोको आयुष्मान्, और तुम्हारा वह मातुल - कुल ? " “ शाक्य - कुल कहिए भन्ते आचार्य , मैं उसे आमूल नष्ट करूंगा। " " तुम्हें करना होगा पुत्र ! और यह पितृ कुल भी ? " " इसे भी मैं नष्ट करूंगा। " “ तभी तुम कोसल के सिंहासन पर आसीन होगे। सुनो आयुष्मान् , मैं तुम्हारी सहायता करूंगा, तुम्हारा कण्टक मुझे ज्ञात है। " । “ वह क्या है आचार्य? " "बंधुल मल्ल और उसके बारहों पुत्र -परिजन। बंधुल के ऊपर निर्भर होकर राजा राजकाज से निश्चिन्त हो गया है , बंधुल स्वयं अमात्य हो गया है और उसने अपने बारहों पुत्र - परिजनों को सेना और राजकोष का अधिपति बना दिया है । ये जब तक जीवित हैं तुम्हारा स्वप्न सिद्ध नहीं होगा । " " परन्तु आचार्य , मैं समय की प्रतीक्षा कर रहा हूं । " _ " मूर्खता की बातें हैं आयुष्मान् ! तुम्हारा यह उद्गीव यौवन प्रतीक्षा ही में विगलित जो जाएगा । फिर उसी के साथ साहस और उच्चाकांक्षाएं भी । मित्रगण निराश होकर थक जाएंगे और वे अधिक आशावान् शत्रु को सेवेंगे। तुम आयुष्मान्, समय को खींचकर वर्तमान में ले आओ। " “किस प्रकार आचार्य? " “ कहता हूं , सुनो । इस बंधुल और उसके बारहों पुत्र - परिजनों को नष्ट कर दो आयुष्मान्, और बंधुल के भागिनेय दीर्घकारायण को अपना अंतरंग बनाओ, इससे तुम्हारा यन्त्र सफल होगा । दीर्घकारायण, बंधुल और राजा , दोनों से अनादृत और वीर पुरुष है। " " परन्तु यह अति कठिन है आचार्य! ” “ अति सरल आयुष्मान् ! वत्सराज उदयन सीमान्त पर सैन्य - संग्रह कर रहा है । कलिंगसेना के अपहरण से वह अति क्रुद्ध है । महाराज को भय है कि विवाह और यज्ञ में वह विघ्न डालेगा । " __ “ यह मैं जानता हूं। महाराज ने उधर सेनापति कारायण को भेजा है। " “ मैं ऐसी व्यवस्था करूंगा कि सेनापति कारायण को सफलता न मिले आयुष्मान्! " " इससे क्या होगा आचार्य? " “ तब तुम महाराज और बन्धुल को उत्तेजित करके बन्धुल के बारहों पुत्र - परिजनों को सीमान्त पर भिजवा देना और कारायण को राजधानी में वापस बुलाकर राजा से अनादृत कराना। ”
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