"तो यों कहो कि श्रावस्ती में जहां देखो वहीं उस धूर्त शाक्य-श्रमण के गुप्तचर भर रहे हैं। पर सौम्य लौहित्य, तुम उस मूर्ख राजकुमार विदूडभ को मेरे पास लाओ। उसे तो हमारे ही दल में मिलना चाहिए।"
"मैं चेष्टा करूंगा आचार्य! पर वह तरुण राजकुमार उतना मूर्ख नहीं है; वह बड़ा तेजस्वी है।"
"तब तो और भी अच्छा है। अरे, ये सभी वर्णसंकर जन आर्यों से अधिक तेजस्वी होते हैं। प्रिय, यदि वही निकट भविष्य में कोसल का सिंहासन आक्रान्त करेगा, तो उसे अपना निकटवर्ती रखना अच्छा है। विशेषकर इसलिए कि वह शाक्य गौतम से घृणा करता है, जिसके नाम का श्रावस्ती, कोसल राजगृह, वैशाली सर्वत्र ही जनपद में डंका बज रहा है।"
"मैं उसे लाऊंगा आचार्य! वह मेरा आदर करता है।"
"तो उससे लाभ उठाओ भाई! हां, राजमहिषी मल्लिका की क्या बात कर रहे थे?"
"वे नित्य उस श्रमण गौतम के पास जाती हैं। वे जानती हैं, उनका माली की पुत्री होने का लांछन वही मिटा सकता है। सेट्ठिवधू विशाखा उनके बहुत मुंह लगी है।"
"तो उन दोनों का भेद कराना होगा। राजमहिषी को भी हमारे ही दल में मिलना चाहिए। फिर मैं उस शाक्य शुद्धोदन को समझ लूंगा।"
"यह तनिक कठिन होगा आचार्य! देवी मल्लिका माली की बेटी तो हैं, परन्तु उनकी निष्ठा बहुत है, और कोसल जनपद में उसका मान महाराज प्रसेनजित् के ही समान है।"
"तभी तो सौम्य लौहित्य! परन्तु चिन्ता न करो, मैं उपाय कर लूंगा। राजमहिषी मल्लिका को मेरी शरण आना ही होगा, यह राजसूय समाप्त होने दो। जब तक यज्ञ समाप्त नहीं हो जाता, राजा मेरी ही इच्छा के अधीन हैं। परन्तु श्रावस्ती पर एक और भी तो पापग्रह है।"
"वह कौन?"
"श्रमण महावीर जिन।"
"उसकी तपश्चर्या ही निराली है आचार्य, कुछ समझ में ही नहीं आता। सुना है, वह दो-दो मास निराहार रहते हैं। आजीवकों की भांति नंगे रहते हैं। उनके शील और व्रत बहुत श्रावक धारण कर रहे हैं। वह भी शूद्र और ब्राह्माण में अभेद रखते हैं। राजपुत्र विदूडभ उन्हें बहुत मानते हैं।"
"समझ गया। अरे लौहित्य, प्रसिद्धि के अनेक उपाय हैं। इस लिच्छवि निग्रंथ श्रमण को भी मैं अच्छी तरह जानता हूं। उधर शाक्यों ने इधर लिच्छवियों ने अपने गणराज्य के विस्तार का यह धर्म का ढोंग रचा है इनका उच्छेद सम्राट् द्वारा नहीं विदूडभ के द्वारा होगा। नहीं तो वे कोसल के आर्य राज्य को खोखला कर डालेंगे। अच्छा-अच्छा, देखूंगा इसे, राजसूय समाप्त होने दो।"