"होंगे क्यों नहीं? बिना ऐसा किए वे अपने असुर-रक्त-प्रभावित वर्णसंकर वंश को छिपाएंगे कैसे? पर राजमहिषी मल्लिका?"
"राजमहिषी तो सेट्ठि विशाखा के पूरे प्रभाव में है आचार्य, और वह भी गौतम की शिष्या हो गई है।"
"तब महाराज प्रसेनजित् अब किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं?"
"वे घपले में पड़े हैं आचार्य, असल बात तो यह है कि वे राजकुमार विदूडभ से बहुत भीत हैं और सच पूछिए तो शाक्य शुद्धोदन को भी उसका बड़ा भय है। इस भय से बचने के लिए गौतम की शरण ही एक ढाल है।"
"ठीक है, पायासी! पर तुमने सुना-"गौतम शाक्य कहता क्या है?"
"आचार्य, वह आप ही की भांति कहता है कि आत्मा और ईश्वर नाम की कोई नित्य वस्तु विश्व में नहीं है। सभी वस्तुएं जो उत्पन्न होती हैं, नाशवान् हैं। संसार वस्तुओं का नहीं, घटनाओं का प्रवाह है।"
"वाह पट्ठे, सुनने में तो ये बातें बड़ी सुन्दर जान पड़ती हैं! अरे, उसने सत्य पर मुलम्मा किया है। क्यों लौहित्य, क्या कहते हो? जो लोग लोक-मर्यादा, धनी और निर्धन तथा दास-स्वामी के भेद को लेकर मुझसे भड़कते हैं, वे गौतम के इस जाल में फंस जाएंगे? पर यह संसार घटनाओं का प्रवाह कैसे है भाई?"
"आचार्य, गौतम कहता है-यद्यपि कोई शाश्वत चैतन्य आत्मा संसार में नहीं है, परन्तु एक चेतना-प्रवाह स्वर्ग या नरक आदि लोकों के भीतर एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक शरीर-प्रवाह से दूसरे शरीर-प्रवाह में बदलता रहता है।"
"बड़ी चालाकी करता है यह गौतम शाक्य! वत्स लौहित्य, वह मेरे सत्य को भी पकड़े हुए है और प्रवाहण के पुनर्जन्म के पाखण्ड को भी। अब मैं समझा पायासी, कि यदि वह ऐसा न करता तो क्या साकेत, कौशाम्बी, श्रावस्ती और राजगृह के राजा-महाराजा, सेद्वि-सामन्त और महाशाल उसके चरणों में सिर नवाते? और अपनी थैलियां यों उसके आगे खोल देते?"
"यही तो बात है आचार्य! सुना नहीं आपने, विशाखा का एक प्रतिस्पर्धी मूर्ख और खड़ा हुआ है श्रावस्ती में।"
"कौन है वह?"
"अनाथपिण्डिक सुदत सेट्ठि।"
"सेट्ठि सुदत्त? क्या किया है उसने लौहित्य?"
"जब उसने देखा कि पुत्रवधू विशाखा की आड़ में सेट्ठि मृगार महिषी मल्लिका के द्वारा शाक्य गौतम और महाराज प्रसेनजित् का कृपापात्र होना चाहता है, तब उसने भी एक मार्ग निकाल लिया।"
"कौन-सा मार्ग?"
"उसने जैत राजकुमार को साधन बनाया है आचार्य!"
"किस भांति लौहित्य?"
"राजकुमार से उसका क्रीड़ा-उद्यान जैतवन क्रय कर, उसमें विहार बनवाकर उसने गौतम शाक्य को भेंट कर दिया।"