ऐतरेय ने खड़े होकर कहा-"नहीं; मेरी मर्यादा है कि एक पुरुष की अनेक पत्नियां हों, पर एक स्त्री के अनेक पति नहीं। मैं यह भी मर्यादा स्थापित करता हूं कि चार पीढ़ियों के अन्तर्गत आत्मीयों में विवाह न हो। वे चार पीढ़ी बाद सम्मिलित हों।"
अथर्वांगिरस्-"और उसे गुरुजन जिसे दान में दें, वह उसी की पत्नी हो। वह प्रिय दृष्टिवाली, पति की अनुरक्ता, सुखदायिनी, कार्यनिपुणा, सेवा करनेवाली, नियमों का पालन करनेवाली, वीर पुत्र उत्पन्न करनेवाली तथा देवर की कामना करनेवाली हो।"
भारद्वाज ने कहा-"पति की सेवा करनेवाली, नियमों का पालन करनेवाली तथा गुरुजनदत्ता-ये चार नई मर्यादाएं स्थापित हुईं।"
अथर्वांगिरस् ने कहा-"एक पांचवीं और वह सास-ससुर तथा पति के कुटुम्ब के साथ रहे।"
"तो वह अब पति की पत्नी ही नहीं, पति के परिवार का अंग भी हो?" वैशम्पायन पैल ने पूछा।
"ऐसा ही है भद्र! यह मर्यादा उन आर्य, अनार्य, अनुलोम, संकर सभी पर लागू हो, जो वर्णधर्मी हों और यह वैदिक मर्यादा ही रहे। इससे राष्ट्र की संपत्ति, धर्म और राजनीति अखण्ड रहेगी। आंध्र, सौराष्ट्र, चोल, चेर, पाण्ड्य, अंग, बंग, कलिंग-सभी जनपद इस मर्यादा का पालन करें।"
परिषद् ने मर्यादा स्वीकृत की। अब गौतम ने खड़े होकर कहा-"मित्रो, मैं इससे अधिक आवश्यक प्रश्न उठाता हूं। हमारे लिए अब चार वर्ण यथेष्ट नहीं हैं। अब अनेक अनार्य बन्धुओं के मिश्रण से जातियों की अनेक शाखाएं फैलती जा रही हैं। अनार्य बंधु-संसर्ग को उत्तेजन देने को हमने असवर्ण विवाह की मर्यादा स्थिर की थी। मैं ऐसे विवाहों से उत्पन्न सन्तान को अब दायभाग से वंचित करता हूँ तथा उन्हें शुद्ध वर्ण और गोत्र की परंपरा से वंचित करता हूं। वे अनुलोम हों या प्रतिलोम, मैं उनकी पृथक् जाति स्थापित करता हूं। मैं छः प्रकार के विवाह घोषित करता हूं एक ब्राह्म-जिसमें पिता वटुक वर को जल का अर्घ्य देकर कन्या अर्पण करेगा। यह ब्राह्मण का ब्राह्मण के लिए है। दूसरा दैव-जिसमें पिता कन्या को वस्त्राभूषणों से सज्जित करके यज्ञ में स्थानापन्न पुरोहित को देगा। यह क्षत्रिय का ब्राह्मण के लिए है। तीसरा आर्ष-जिसमें पिता एक गाय या बैल देकर उसके बदले कन्या दे। यह जनपद के लिए है। चौथा गान्धर्व-जिसमें तरुण-तरुणी स्वयं ही परस्पर वरण करेंगे। यह वयस्कों के लिए है। पांचवां क्षात्र-जिसमें पति कन्या के संबंधियों को युद्ध में विजय कर बलात् कन्या का हरण करेगा। यह क्षत्रिय का क्षत्रिय के लिए है। छठा मानुष-"जिसमें पति कन्या को उसके पिता से मोल लेगा-यह क्षत्रिय, ब्राह्मण का शूद्र के लिए है।"
आपस्तंब ने कहा-"मैं यह मर्यादा स्वीकार करता हूँ, परन्त क्षात्र विवाह को 'राक्षस' और मानुष को 'आसुर' घोषित करता हूं। मेरे दक्षिण के जनपद में रक्ष और आसुरों में ये विवाह-मर्यादा स्थापित हैं।"
वसिष्ठ-"मैं जानता हूं। असुर-कन्या शर्मिष्ठा को हम भुला नहीं सकते। मद्र और केकय-वंश की कन्याओं को मध्यदेशीय क्षत्रिय सदैव शुल्क देकर लेते हैं और जिन क्षत्रियों के कुलों में असुरों से सम्बन्ध है, वहां यही कुल-परंपरा है। यदि हम इन क्रीता राजकुमारियों को विवाहित पत्नी नहीं मानते हैं, तो उसकी सन्तानों के अधिकार की रक्षा नहीं होगी। हां,