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57. शालिभद्र

राजगृह में गोभद्र सेट्ठि का पुत्र शालिभद्र था। वह अति सुकुमार और माता-पिता का प्रिय युवक था। उसकी सर्वलक्षणसंपन्न बत्तीस पत्नियां थीं जिनके साथ वह अपने विलास भवन में विविध देश-देशांतर से संचित विपुल भोग्य पदार्थों को भोगता था।

उन दिनों पारस्य देशीय कुछ व्यापारी राजगृह में बहुत-से रत्नकम्बल लेकर बेचने के लिए आए थे। परन्तु उनका मूल्य इतना अधिक था कि विविध युद्धों में व्यस्त सम्राट बिम्बसार ने रिक्त राजकोष देखकर इन रत्नकम्बलों को खरीदना अस्वीकार कर दिया। व्यापारी बहुत दूर से आशा करके आए थे। अब प्रतापी मगध-सम्राट् से ऐसी बात सुनकर वे बड़े निराश हुए। राजमहालय से निकलकर वे नगरवीथी में होकर जा रहे थे। जब वे शालिभद्र के विशाल भवन के निकट पहुंचे तो शालिभद्र की माता भद्रा ने पसन्द करके रत्नकम्बल खरीद लिए।

सम्राज्ञी को खबर मिली कि पारस्य देश के व्यापारी बहुमूल्य रत्नकम्बल बेचने के लिए राजगृह आए हैं। उन्होंने सम्राट् से, चाहे भी जिस मूल्य पर, एक रत्नकम्बल खरीद देने का अनुरोध किया। सम्राट ने अपने सर्वार्थक अमात्य को आदेश दिया "भणे अमात्य, सम्राज्ञी एक रत्नकम्बल चाहती हैं। सो एक कम्बल पारस्य सार्थवाहों से चाहे भी जिस मूल्य पर खरीद लो।"

सर्वार्थक अमात्य ने सार्थवाहों से पूछकर सम्राट से निवदेन किया—"देव, उन्होंने तो सभी रत्नकम्बल भद्रा सेट्ठिनी के हाथ बेच दिए हैं।"

"तो भणे अमात्य, तुम भद्रा सेट्ठिनी को मूल्य देकर एक रत्नकम्बल सम्राज्ञी के लिए मंगा दो।"

भद्रा सेट्ठिनी के पास सर्वार्थक महामात्य ने आदमी भेजा। उसने कहा—"भद्र, उन सब रत्नकम्बलों के मैंने अपनी पुत्रवधुओं के पैर पोंछने के पोंछन बनाने के हेतु छोटे-छोटे टुकड़े कर डाले हैं। एक भी रत्नकम्बल समूचा शेष नहीं है।

सर्वार्थक अमात्य ने सम्राट से निवेदन किया। सम्राट ने सुनकर आश्चर्य से आंखें फैलाकर कहा—"भणे अमात्य, क्या मेरे राज्य में ऐसे धनिक कुबेर बसते हैं?" तो मैं एक बार उस सेट्ठिनी-पुत्र शालिभद्र को देखना चाहता हूं। सर्वार्थक अमात्य ने स्वयं भद्रा सेट्ठिनी की सेवा में उपस्थित होकर सम्राट का अभिप्राय उससे कहा। इस पर भद्रा सेट्ठिनी महार्घ शिविका में बैठ स्वयं सम्राट् की सेवा में राजमहालय में आई। उसने सम्राट के सम्मुख उपस्थित होकर निवेदन किया—"देव, मेरा पुत्र शालिभद्र हर्म्य के सातवें खण्ड से नीचे नहीं उतरता, इसलिए सम्राट् ही कृपा कर मेरे घर पधारकर मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाएं।"

सम्राट को भद्रा की बात सुनकर अत्यंत कौतूहल हुआ। उन्होंने भद्रा सेट्ठिनी का अनुरोध स्वीकार किया।