पूछा, क्योंकि वैशाली के लिच्छवी अब पहले-जैसे नहीं हैं।"
"सो कैसे मित्र?"
"मित्र नहीं आवुस, नापित-गुरु कहो।"
"तो नापित-गुरु, यदि तुम मुझे कहीं नौकरी रखवा दोगे तो मैं तुम्हारा भी उपकार करूंगा।"
"कैसा उपकार करोगे आवुस?"
"एक मास का वेतन दे दूंगा और तुम्हारा वह गुणगान करूंगा कि जिसका नाम...!"
"तो आवुस, तुम अभी यहीं खरकुटी में विश्राम करो, मैं कल प्रभात में तुम्हें वहां ले जाऊंगा। परन्तु सुनो, वे एक बहुत भारी राजपुरुष हैं। तुमने क्या कभी किसी राजपुरुष की सेवा की है?"
"बहुत-बहुत नापित-गुरु। मैं केवल राजपुरुषों ही की सेवा करता रहा हूं, जन साधारण की नहीं।"
"तब अच्छा है। तो इधर आओ आवुस।"
प्रभंजन उसे खरकुटी के भीतर एक छोटे-से प्रांगण में ले गया। प्रांगण के उस पार कई छोटी-छोटी कोठरियां थीं। एक खोलकर उसने कहा—"आवुस, अभी तुम यहां विश्राम करो। एक मुहूर्त में मैं काम से निपटकर तुम्हारे आहार की व्यवस्था कर दूंगा। आज मैं बहुत व्यस्त रहा मित्र। तुमने सुना, सम्राट ने आर्य अमात्य को पदच्युत किया है?" प्रभंजन तेज़ी से यह कहकर लौट रहा था कि आगन्तुक व्यक्ति ने अपना उष्णीष एक ओर फेंक दिया और वापस लौटते हुए नापित से कहा—"प्रभंजन!"
अतर्कित और अकल्पित ढंग पर अपना नाम सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने लौटकर देखा तो साक्षात् मगध-महामात्य वहां उपस्थित थे। नापित ने भूपात करके प्रणाम किया। अमात्य ने कहा—"प्रभंजन, लेख की सामग्री ला और अभी एक लम्बी यात्रा की तैयारी कर।"
प्रभंजन की वाचालता लुप्त हो गई। वह तेज़ी से दूसरी कोठरी में घुस गया और लेख की सामग्री लाकर उसने अमात्य के सामने रख दी। इस प्रकार छद्म वेश में एकाकी अमात्य का इस पैदल खरकुटी में आना उसे सर्वथा असंभाव्य प्रतीत हो रहा था। उसने बद्धाञ्जलि होकर कहा—"आर्य, यदि एक घड़ी-भर का मुझे अवकाश दें...।"
"हां-हां, इतना काल तो मुझे लेख में लग जाएगा। परन्तु प्रभंजन, तेरी यह यात्रा अत्यन्त गुप्त होगी और मैं अभी तीन दिन इसी वेश में इसी खरकुटी में रहूंगा। ऐसा यत्न कर कि इसका किसी को ज्ञान न हो।"
"ऐसा ही होगा आर्य!"
अमात्य लेख लिखने में लग गए। प्रभंजन ने झटपट ग्राहकों से छुट्टी ले सहयोगियों को आवश्यक आदेश दिए। एक खड्ग वस्त्रों में छिपाया, छद्म धारण किया और पर्यटक बंजारे के वेश में अमात्य के सम्मुख आ उपस्थित हुआ।
अमात्य ने देखा, मुस्कराकर समर्थन किया, फिर एक मुहरबन्द पत्र और मुहरों से भरी थैली उसे देकर कहा—"यह पत्र जितना शीघ्र सम्भव हो, श्रावस्ती में सेनापति उदायि