पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२११

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

पूर्णकर, भगवान् के भोजन कर पात्र से हाथ खींच लेने पर स्वस्थचित्त होकर कहा—

"भगवान्, भिक्षुसंघ सहित, श्रावस्ती-वर्षावास स्वीकार करें।"

"शून्यागार में गृहपति, तथागत अभिरमण करते हैं।"

"समझ गया भगवन्, समझ गया सुगत!"

अनाथपिंडिक गृहपति बहुमित्र, बहुसहाय और प्रामाणिक था। राजगृह में जब वह अपना काम समाप्त कर चुका और श्रावस्ती को चल पड़ा तो उसने मार्ग में मित्रों तथा परिचित जनों से कहा—"आर्यो, आराम बनवाओ, विहार प्रतिष्ठित करो। लोक में बुद्ध उत्पन्न हो गए हैं। उन्हें मैंने आमन्त्रित किया है, वे इसी मार्ग से आएंगे।"

तब अनाथपिंडिक गृहपति से प्ररेणा पाकर लोगों ने आराम बनवाए, विहार प्रतिष्ठित किए, सदावर्त लगवाए। जो धनी थे उन्होंने अपने धन से बनवाया; जो निर्धन थे उन्हें गृहपति ने धन दिया। इस प्रकार राजगृह से श्रावस्ती तक पैंतालीस योजन के रास्ते में योजन-योजन पर विहार बनवाता हुआ श्रावस्ती गया। श्रावस्ती पहुंचकर उसने विचार किया—"भगवान् कहां निवास करेंगे? ऐसी जगह होनी चाहिए जो बस्ती से न बहुत दूर हो, न बहुत समीप हो, जाने-आनेवालों के लिए सुविधा भी हो। दिन को भीड़-भाड़ न रहे, रात को विजन-वात, अल्प-शब्द, अल्पनिर्दोष, मनुष्यों से एकान्त और ध्यान के उपयुक्त हो।"

उसका ध्यान जैत राजकुमार के जैत-उद्यान की ओर गया। उसे वही स्थान सब भांति उपयुक्त जंचा। उसने जैत राजकुमार से कहा—

"आर्यपुत्र, मुझे आराम बनाने के लिए अपना उद्यान दीजिए।"

"गृहपति, कोटि-संथार से भी वह अदेय है।"

"तो आर्यपुत्र, मैंने आराम ले लिया।"

"नहीं गृहपति, तूने नहीं लिया।"

लिया या नहीं लिया—इसकी न्याय-व्यवस्था के लिए यह व्यवहार-अमात्यों के पास गया। उन्होंने कहा—

"आर्यपुत्र ने क्योंकि मोल किया, इसलिए आराम ले लिया गया।"

तब गृहपति अनाथपिंडिक ने गाड़ियों पर हिरण्य ढुलवाकर जैतवन में कोटि संथार बिछा दिया। एक बार के लाए हिरण्य से द्वार के कोठे के चारों ओर का थोड़ा-सा स्थान पूरा न हुआ। तब अनाथपिंडिक गृहपति ने अपने मनुष्यों को आज्ञा दी—"जाओ भणे, हिरण्य और ले आओ, हम इस सारी भूमि पर स्वर्ण बिछाएंगे।"

जैत राजकुमार ने देखा—गृहपति इतना स्वर्ण खर्च कर रहा है, तब यह कार्य अत्यन्त महत्त्व का होगा। तब उसने अनाथपिंडिक गृहपति से कहा—"बस गृहपति, तू इस खाली स्थान को स्वर्ण से मत ढांप, यह खाली जगह मुझे दे। यह मेरा दान होगा।"

इस पर गृहपति अनाथपिंडिक ने सोचा—"यह जैतकुमार गण्यमान्य प्रसिद्ध पुरुष है। इस धर्म-विनय में इनका प्रेम लाभदायक होगा और वह स्थान जैतकुमार को दे दिया। तब जैतकुमार ने उस स्थान पर कोठा बनवाया। अनाथपिंडिक ने जैतवन में विहार बनवाए, परिवेण बनवाए, कोठियां, उपस्थान, शालाएं, अग्निशालाएं, काल्पिक कुटिया, बच्चकुटी, बच्चकूप, पिशाबखाने, चंक्रमण-स्थान, चंक्रमणशालाएं, प्याऊ, प्याऊघर, जंताघर, जंताघरशालाएं, पुष्करिणियां और मंडप आदि बनवाए।