51. वर्षकार का यन्त्र
सम्राट् ने राजधानी में लौटकर देखा, अवन्तिपति चण्डमहासेन प्रद्योत ने राजगृह को चारों ओर से घेर लिया था। नगर का वातावरण अत्यन्त क्षुब्ध था। सम्राट् थकित और अस्त-व्यस्त थे। राजधानी में महामात्य उपस्थित नहीं थे, न सेनापति चण्डभद्रिक ही थे। सेना की व्यवस्था भी ठीक न थी। चंपा में फैली हुई सैन्य लौटी न थी और सेना का श्रेष्ठ भाग श्रावस्ती में बिखर गया था। सम्राट् ने तुरन्त उपसेनापति उदायि को बुलाकर परामर्श किया।
सम्राट ने कहा—
"भणे सेनापति, यह तो विपत्ति-ही-विपत्ति चारों ओर दीख रही है। मालवपति ने राजगृह को घेरा है, हम विपन्नावस्था में हैं ही, अब तुम कहते हो कि मथुरापति अवन्तिवर्मन प्रद्योत की सहायता करने आ रहा है।"
"ऐसा ही है देव।"
"तो भणे सेनापति, ये दोनों ग्रह परस्पर मिलने न पाएं, ऐसा करो।"
"किन्तु देव, आर्य महामात्य का कड़ा आदेश है कि युद्ध किसी भी दशा में न किया जाए।"
"उन्होंने यह आदेश किस आधार पर दिया है?"
"अपने यन्त्र के आधार पर।"
"वह यन्त्र क्या है?"
"उसे गुप्त रखा गया है।"
"कौन उसके सूत्रधार हैं?"
"आचार्य शाम्बव्य काश्यप।"
"तो भणे सेनापति, काश्यप को देखना चाहता हूं।"
"परन्तु काश्यप राजधानी में नहीं हैं।"
"कहां हैं?"
"अमात्य ने उन्हें छद्म रूप में कहीं भेजा है?"
"आर्य अमात्य यह सब क्या कर रहे हैं? भणे सेनापति, करणीय या अकरणीय?"
"करणीय देव।"
"तो फिर हमें संप्रति क्या करणीय है?"
"अमात्य की प्रतीक्षा।"
"जैसे हम लोग कुछ हैं ही नहीं, सब कुछ अमात्य ही हैं।"
"देव क्या युद्ध करना चाहते हैं?"
"भणे सेनापति, युद्ध हम दो सम्मिलित सैन्यों से कैसे कर पाएंगे। हमारे पास सेना