पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२०१

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इस विलम्ब में उनकी कोई गुप्त अभिसन्धि है। किन्तु यही सम्राट् बिम्बसार का दुर्भाग्य था। उधर बंधुल और बंधुल-बंधुओं ने हूण सैन्य को अच्छा व्यवस्थित कर दिया था। सम्राट को इसकी स्वप्न में भी आशा नहीं थी। नहीं तो वे चण्डभद्रिक की प्रतीक्षा करते। जो हो, अब विजयी वीर पति की प्राप्ति पर मैं तुम्हें बधाई देती हूं सखी।"

"खेद है कि मैं अकिंचन उसे स्वीकार नहीं कर सकती।"

नन्दिनी ने हंसकर कहा—"हला, कोसल की राजमहिषियों में परिगणित होना परम सौभाग्य का विषय है।"

"परन्तु, गान्धारकन्या का तो वह दुर्भाग्य ही है। मैं गान्धारकन्या हूं। हम लोग पति-सहयोग के अभ्यासी हैं।"

"परन्तु यहां आर्यों में स्त्री प्रदत्ता है, हला। उसका पति अनेक स्त्रियों का एक ही काल में पति हो सकता है।"

"परन्तु गांधार में एक स्त्री के रहते दूसरी स्त्री नहीं आ सकती।"

"तो बहिन, उत्तर कुरुओं की पुरानी परिपाटी अभी वहां है?"

"वहीं क्यों? पशुपुरी के पार्शवों और एथेन्स के यवनों में भी ऐसा ही है। वहां स्त्री पुरुष की जीवनसंगिनी है।"

"यहां कोसल, मगध, अंग, बंग और कलिंग में तो कहीं भी ऐसा न पाओगी। यहां स्त्री न नागरिक है, न मनुष्य। वह पुरुष की क्रीत संपत्ति और उसके विलास की सामग्री है। पुरुष का उसके शरीर और आत्मा पर असाधारण अधिकार है।"

"परन्तु मैं, देवी नन्दिनी, यह कदापि न होने दूंगी। मैंने आत्मबलि अवश्य दी है, पर स्त्रियों के अधिकार नहीं त्यागे हैं। मैं यह नहीं भूल सकती कि मैं भी एक जीवित प्राणी हूं, मनुष्य हूं, समाज का एक अंग हूं, मनुष्य के संपूर्ण अधिकारों पर मेरा भी स्वत्व है।"

"यह सब तुम कैसे कर सकोगी? जहां एक पति की अनेक पत्नियां हों, उपपत्नियां हों और वह किसी एक के प्रति अनुबंधित न हो, पर उन सबको अनुबंधित रखे, वहां मानव समानता कहां रही बहिन? यह पति शब्द ही कैसा घृणास्पद है! हमारी विवश दासता की सारी कहानी तो इसी एक शब्द में निहित है।"

"यह कठिन अवश्य है देवी नन्दिनी, परन्तु मैं किसी पुरुष को पति नहीं स्वीकार कर सकती। पुरुष स्त्री का पति नहीं, जीवनसंगी है। पति तो उसे संपत्ति ने बनाया है। सो जब मैं उसकी संपत्ति का भोग नहीं करूंगी, तो उसे पति भी नहीं मानूंगी।"

"परन्तु कोसल के अन्तःपुर में तुम इस युद्ध में विजय प्राप्त कर सकोगी?"

"मैं युद्ध करूंगी ही नहीं देवी नन्दिनी। कोसलपति ने यही तो कहा है कि यदि गान्धारराज अपनी पुत्री मुझे दे, तो कोसल राज्य गान्धार का मित्र है। सो गान्धार ने अपना कार्य किया, उसका मैंने विरोध नहीं किया। अब मेरे साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए, मेरे क्या-क्या अधिकार हैं, यह मेरा अपना व्यक्तिगत कार्य है। इसमें मैं किसी को हस्तक्षेप नहीं करने दूंगी।"

"किन्तु जीवनसंगी?"

"ओह देवी नन्दिनी, जीवनसंगी जीवन में न मिले तो अकेले ही जीवनयात्रा की जा सकती है। अन्ततः बलिदान में कुछ त्याग तो होता ही है।"