"उन्हें तुम्हीं खोज लो।"
"अच्छी बात है; यह भी संभव है, वे लोग उसी घाटी में मर-खप गए हों। किन्तु तुम लोग जा कहां रही हो?"
"हम श्रावस्ती जा रहे हैं।"
"वह तो अभी साठ योजन है।"
"इससे तुम्हारा क्या प्रयोजन है! हमें अपने मार्ग जाने दो।"
"हमारा सार्थवाह भी श्रावस्ती जा रहा है, हमारे साथ ही चलो तुम।"
"क्या बल से?"
"नहीं विनय से।" वह पुरुष हंसकर पीछे हट गया। उसके साथी दोनों के अश्वों को घेरकर चलने लगे। कुण्डनी ने विरोध नहीं किया। कुछ दूर चलने पर उन्होंने देखा, वन के एक प्रांत भाग में कोई पचास-साठ पुरुष आग के चारों ओर बैठे हैं, एक ओर कुछ स्त्रियां भी एक बड़े शिलाखंड की आड़ में बैठी हैं। कुछ सो रही हैं।
इनके वहां पहुंचने पर कई मनुष्य इनके निकट आ गए। एक पुरुष ने मशाल ऊंची करके कहा—"वाह, बहुत बढ़िया माल है! स्वामी को अभी सूचना दो।" इसी समय एक अधेड़ अवस्था का खूब मोटा आदमी आगे आया। इसकी लम्बी दाढ़ी और मोटी गरदन थी। वह एक कीमती शाल लापरवाही से कमर में लपेटे हुआ था। उसने हर्षित नेत्रों से दोनों स्त्रियों को देखा और हाथ मलकर सिर हिलाया।
"तो तुम दास-विक्रेता हो?" कुण्डनी ने घृणा से होंठ सिकोड़कर कहा।
"तुम ठीक समझ गई हो, परन्तु चिन्ता न करो, मैं श्रावस्ती जा रहा हूं। तुम्हें और तुम्हारी सखी को महाराज को भेंट करूंगा। वहां तुम्हारी यह सखी पट्ट राजमहिषी का पद ग्रहण करेंगी और तुम भी। संभवतः तुम अति दूर से आ रही हो और तुम्हारी साथिन रुग्ण है। अभी विश्राम करो, प्रभात में परिचय प्राप्त करूंगा।" उसने दास को संकेत किया और उनके अश्व थाम उधर ले गया, जिधर अन्य स्त्रियां बैठी थीं। पहले उसने राजकुमारी को सहारा देकर उतारा, फिर वह कुण्डनी के निकट आया। वह असावधान था, कुण्डनी ने विद्युत-वेग से उस पर हठात् कटार का वार किया और द्रुत वेग से अश्व को छोड़ दिया। दास ने चिल्लाकर कहा—"पकड़ो, पकड़ो! दासी भागी जाती है।" अनेक पुरुष अस्त्र-शस्त्र लेकर उसके पीछे दौड़े, पर कुण्डनी उनके हाथ न आई। कुछ देर में सब लोग हताश हो लौट आए। राजकुमारी का एकमात्र अवलम्ब भी जाता रहा। वह वहीं मूर्छित होकर गिर गई।