45. भविष्य-कथन
भगवान् वादरायण दीपाधार के निकट बैठे एक भूर्जपत्र पर कुछ लिख रहे थे। माधव ने भू-प्रणिपात करके देवी अम्बपाली के आगमन का संदेश दिया। दूसरे ही क्षण अम्बपाली ने साष्टांग दण्डवत् किया। भगवान् ने कहा—"अब कहो शुभे अम्बपाली, मैं तुम्हारा क्या प्रिय कर सकता हूं?"
अम्बपाली मौन रही। संकेत पाकर माधव चले गए। उनके जाने पर अम्बपाली ने कहा—"भगवन्, इस समय क्या किसी गुरुतर कार्य में संलग्न हैं?"
"नहीं, नहीं, मैं तुम्हारी ही गणना कर रहा था।"
"इस भाग्यहीन के भाग्य में अब और क्या है?"
"बहुत-कुछ कल्याणी। तुम्हारा सौदा सफल है, तुम मगध के सम्राट् की माता होगी! किन्तु..."
अम्बपाली ने विस्मित होकर कहा—
"भगवान् सर्वदर्शी हैं, पर किन्तु क्या?"
"...किन्तु सम्राज्ञी नहीं।"
अम्बपाली के होंठ कांपे, पर वह बोली नहीं। भगवान् ने फिर कहा—
"और एक बात है शुभे!"
"वह क्या भगवन्?"
"तुम वैशाली गणतन्त्र की जन हो, वैशाली का अनिष्ट न करना!"
अम्बपाली के भ्रू कुञ्चित हुए। यह देख भगवान् वादरायण हंस दिए। उन्होंने कहा—"गणतन्त्र पर तुम्हारा रोष स्वाभाविक है, उसी कानून के सम्बन्ध में न?"
"भगवन्, उसी धिक्कृत कानून के सम्बन्ध में।"
"पर यह बात तो अब पुरानी हुई। फिर तुमने उसका मुंहमांगा शुल्क भी पाया। अब भी तुम्हारा रोष नहीं गया?"
"नहीं भगवन्, नहीं।"
"फिर यह सौभाग्य?"
"मगध-सम्राज्ञी न होते हुए मगध-साम्राज्य की राजमाता का लांछित हास्यास्पद पद?" अम्बपाली ने घृणा से होंठ सिकोड़े और क्रोध से उसके नथुने फूल गए।
भगवान् वादरायण विचलित नहीं हुए। वे मन्द स्मित करते अचल बैठे रहे। अम्बपाली एकटक उनकी भृकुटि में चिन्ताप्रवाह देखती रही। भगवान् ने मृदु-मन्द स्वर में कहा—"केवल यही नहीं..."
"क्या और भी कुछ?"
"बहुत-कुछ।"