पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१८१

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"सुनिए देव, सम्राट को मगध के भावी सम्राट की माता के हृदय का एक कांटा दूर करना होगा, नहीं तो आपके पुत्र को लजाना पड़ेगा।"

"कहो अम्बपाली, अपना अभिप्राय कहो।" सम्राट ने आसन पर बैठकर जलद गम्भीर स्वर में कहा।

"दुहाई सम्राट की! लिच्छवि गणतन्त्र ने मुझे बलपूर्वक अपने धिक्कृत कानून के अनुसार वेश्या बनाया है।"

सम्राट का मुंह लाल हो आया।

अम्बपाली ने आंखों में आंसू भरकर कहा—"देव, मेरा अपराध केवल यही था कि मैं असाधारण सुन्दरी थी। मेरा यह अभियोग है कि वैशाली गण को इसका दण्ड मिलना चाहिए।"

सम्राट् ने हाथ उठाकर कहा, "मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं अष्टकुल के लिच्छवि गणतन्त्र का समूल नाश करूंगा।"

"और सप्तभूमि प्रासाद के कलुषित वातावरण में..." अम्बपाली के होंठ कांप गए।

सम्राट ने कहा—"नहीं-नहीं, प्रिये, देवी अम्बपाली को मैं राजगृह के राजमहालय में ले जाकर पट्ट राजमहिषी के पद पर अभिषिक्त करूंगा। प्रतिज्ञा करता हूं।"

"अनुगृहीत हुई देव, आज मेरा स्त्री-जन्म सार्थक हुआ। अब मुझे एक निवेदन करना है।"

"कहो प्रिये, अब मैं और तुम्हारा क्या प्रिय कर सकता हूं?"

"देव, आपकी चिरकिंकरी अम्बपाली इस समय तक विशुद्ध कुमारी है और वह आपकी आमरण प्रतीक्षा करेगी।"

"मैं कृतार्थ हुआ प्रिये, आह्लादित हुआ!"

सम्राट उठ खड़े हुए। अम्बपाली ने उनके चरण छुए। सम्राट ने उसके मस्तक पर अपना हाथ रखा और कक्ष से बाहर हो गए। अम्बपाली आंखों में आंसू भरे वैसी ही खड़ी रह गई। उसके होठ कांप रहे थे।