44. भारी सौदा
अम्बपाली ने अपने कक्ष में सम्राट को आमन्त्रित किया। सम्राट के आने पर उनका अर्घ्य-पाद्य से सत्कार करके अम्बपाली ने उन्हें उच्च पीठ पर बिठाकर कहा—"तो क्या मैं आशा करूं कि सम्राट ने मेरा अपराध क्षमा कर दिया?"
"कौन-सा अपराध? पहले अभियोग उपस्थित होना चाहिए।"
अम्बपाली ने मन्द स्मित करके कहा—
"गुरुतर अपराध सम्राट्, मैंने सम्राट के लिए व्यवस्थित कक्ष और अभ्यर्थना का अपहरण जो किया।"
यह अपराध तो बहुत प्रिय है और सुखद है देवी अम्बपाली। मैं चाहता हूं, मेरे जीवन के पल-पल में देवी यह अपराध करें।"
"देव, क्या ऐसी ही भावुकता से न्याय-विचार करते हैं?"
"यदि अभियुक्त कोमल कवि कल्पना की सजीव प्रतिमूर्ति हो तो फिर सम्राट् क्या और वधिक क्या, उसे भावुक बनना ही पड़ेगा।"
"देव, यह तो मगध-सम्राट् की वाणी नहीं है।"
"सत्य है देवी अम्बपाली, यह एक आतुर प्रणयी का आत्म-निवेदन है।"
"सम्राट् की जय हो! देव राजमहिषी के प्रति अन्याय कर रहे हैं।"
"देवी अम्बपाली प्रसन्न हों, वे सम्राट के साथ अत्याचार कर रही हैं।"
"किस प्रकार देव?"
"वहां खड़ी रहकर। यहां पास आकर बैठो, एक तथ्य सुनो प्रिये!"
अम्बपाली ने एक पीठ पर बैठते हुए कहा —
"देव की क्या आज्ञा होती है?"
"सुनो प्रिये, सम्राट् पर करुणा करो, इसे प्रसेनजित् से ही पराजित नहीं होना पड़ा…"
"शांतं पापं, क्या देव कोई दूसरी दुर्भाग्य-कथा सुनाना चाहते हैं?"
"कथा नहीं, तथ्य प्रिये। इस भाग्यहीन बिम्बसार को प्रणय क्षेत्र में तो जीवन के प्रारम्भ में ही हार खानी पड़ी है।"
"देव, यह क्या कह रहे हैं?"
"वही, जो केवल देवी अम्बपाली से ही कह सकता था। प्यार की वह निधि तो प्रिये अम्बपाली, अभी तक वहीं उस पुराण हृदय में धरी है, किसी की धरोहर की भांति और मैं आजीवन उसके धनी को ही खोजता रहा हूं।"
"हाय-हाय, और देव उसे अभी तक पाने में समर्थ नहीं हुए?"
"आज हुआ प्रिये, संभाल लो वह सब अपनी पूंजी और इस शुष्क, निस्संग