तरुण आगन्तुक ने महानामन् को सिर से पैर तक देखा और फिर अम्बपाली पर जाकर उसकी दृष्टि स्थिर हो गई। उसने वृद्ध महानामन् से कहा—"बूढ़े, कहां से आ रहे हो?"
"दूर से।"
"साथ में यह कौन है?"
"मेरी बेटी है।"
"बेटी है? कहीं से उड़ा तो नहीं लाए हो? यहां वैशाली में ऐसी सुन्दर लड़कियों के खूब दाम उठते हैं। कहो बेचोगे?"
वृद्ध महानामन् बोले—"नहीं।" क्रोध से उनके नथुने फूल उठे और होंठ सम्पुटित हो गए। वह निश्चल खड़े रहे।
कहनेवाले ने वह सब नहीं देखा। उसके होठों पर एक हास्य नाच रहा था, दूसरा साथी माध्वीक पी रहा था। पात्र खाली करके अब वह बोला। उसने हंसकर साथी से कहा—"क्यों, ब्याह करोगे?"
दूसरा ठहाका मारकर हंसा। "नहीं, नहीं, मुझे एक दासी की आवश्यकता है। छोटी-सी एक सुन्दर दासी।" वह फिर महानामन् की ओर घूमा। महानामन् धीरे-धीरे वस्त्र के नीचे खड्ग खींच रहा था। देखकर आगन्तुक चौंका।
वृद्ध महानामन् ने शिष्टाचार से सिर झुकाया। उसने कहा—"नायक, तुम्हारे इस राजपरिच्छद का मैं अभिवादन करता हूं। तुम्हें मैं पहचानता नहीं, तुम कदाचित् मेरे मित्र के पुत्र, पौत्र अथवा नाती होगे। अब से 11 वर्ष पूर्व मैं भी एक सेना का नायक था। यही राजपरिच्छद, जो तुम पहने हो, मैं पूरे बयालीस साल तक पहन चुका हूं। उसकी मर्यादा मैं जानता हूं और मैं चाहता हूं कि तुम भी जानो। इसके लिए मुझे तुम्हारे प्रस्ताव का उत्तर इस खड्ग से देने की आवश्यकता हो गई, जो अब पुराना हो गया और इन हाथों का अभ्यास और शक्ति भी नष्ट हो गई है। परन्तु कोई हानि नहीं। आयुष्मान्! तुम खड्ग निकालो और तनिक कष्ट उठाकर आगे बढ़कर उधर मैदान में आ जाओ। यहां लड़की थककर सो गई है, ऐसा न हो, शस्त्रों की झनकार से वह जग जाए।"
तरुण मद्यपात्र हाथ में ले चुका था। अब वृद्ध महानामन् की यह अतर्कित वाणी सुन, उसने हाथ का मद्यपात्र फेंक खड्ग निकाल लिया और उछलकर आगे बढ़ा।
तरुण का दूसरा साथी कुछ प्रौढ़ था। उसने हाथ के संकेत से साथी को रोककर आगे बढ़कर बूढ़े से कहा—"आप यदि कभी वैशाली की राजसेना में नायक रह चुके हैं तो आपको नायक चन्द्रमणि का भी स्मरण होगा?"
"चन्द्रमणि! निस्सन्देह, वे मेरे परम सुहृद थे। नायक चन्द्रमणि क्या अभी हैं?" महानामन् ने दो कदम आगे बढ़कर कहा।
"हैं, यह तरुण उन्हीं का पुत्र है। आपका नाम क्या है भन्ते?"
महानामन् ने खड्ग कोष में रख लिया, कहा—"मेरा नाम महानामन् है। यदि यह आयुष्मान् मित्रवर चन्द्रमणि का पुत्र है तो अवश्य ही इसका नाम हर्षदेव है।" युवक ने धीरे-से अपना खड्ग वृद्ध के पैरों में रखकर कहा—"मैं हर्षदेव ही हूं, भन्ते, मैं आपका अभिवादन करता हूं।"