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41. वादरायण व्यास

वैशाली के ठीक ईशान कोण पर—लगभग वैशाली और राजगृह के अर्धमार्ग में पाटलिपुत्र से थोड़ा पूर्व की ओर हटकर गंगा के उपकूल पर एक बहुत प्राचीन मठ था। वह मठ वादरायण मठ के नाम से प्रसिद्ध था। उस मठ की बड़ी भारी प्रतिष्ठा थी। देश-देशांतर के सम्राटों और सामन्तों के समय-समय पर अर्पित ग्राम, सुवर्ण और गौ तथा भू-सम्पति से मठ बहुत सम्पन्न था। राजा और सभी जनों का वहां नित्य आवागमन बना रहता था।

मठ की ख्याति और उसकी प्रतिष्ठा जो दिग्दिगंत में फैल रही थी, उसका कारण भगवान् वादरायण व्यास थे, जो इस मठ के गुरुपद थे। उनके चरणों में बैठकर देश देशांतरों के बटुक विविध विद्याओं का अध्ययन करते और ज्ञान-सम्पदा से परिपूर्ण होकर अपने देशों को लौटते थे।

भगवान् वादरायण कब से मठ के अधीश्वर हैं, यह कोई नहीं जानता, न कोई यही कह सकता है कि उनकी आयु कितनी है। वे आज जैसे हैं, वैसा ही लोग न जाने कब से उन्हें देखते आ रहे हैं।

भगवान् वादरायण धवल कौशेय धारण करते हैं। उनके सिर और दाढ़ी के बाल अति शुभ्र चांदी के समान हैं, जो उनके गौरवर्ण-तेजस्वीमुखमंडल पर अत्यन्त शोभायमान प्रतीत होते हैं। उनकी सम्पूर्ण दन्तपंक्ति बहुमूल्य मुक्तापंक्ति के समान शोभित है, उनका अनवरत मृदु-मन्द हास्य शरद्कौमुदी से भी शीतल और तृप्तिकारक है। वे बहुत कम शयन करते हैं, अपराह्न में केवल एक बार हविष्यान्न आहार करते हैं। आज तक किसी ने उन्हें क्रुद्ध होते नहीं देखा। उनका पाण्डित्य अगाध है और उनकी विचारधारा असन्दिग्ध। उनकी दार्शनिक सत्ता लोकोत्तर है। वे महासिद्ध त्रिकालदर्शी महापुरुष विख्यात हैं।

उनका कद लम्बा, देह दुर्बल किन्तु बलिष्ठ है। नासिका उन्नत, ललाट प्रशस्त, नेत्र मांसल, स्निग्धा और महातेजवान् है। उनमें भूतदया, दिव्य ज्ञान एवं समदर्शीपन की स्निग्धा धारा निरन्तर बहती रहती है।

कोई उन्हें भगवान् वादरायण कहते हैं, कोई केवल भगवान् कहते हैं, किन्तु बहुत जन उन्हें कोई सम्बोधन ही नहीं करते। वे उन्हें देखकर ससंभ्रम पीछे हट जाते हैं अथवा पृथ्वी में गिरकर प्रणिपात करते हैं।

वे दो पहर रात रहते शय्या त्याग देते हैं और गर्भगृह में जाकर समाधिस्थ विराजते हैं। फिर उषा का उदय होने पर मठ के अन्तराल में आकर प्रहर दिन चढ़े तक बटुथों को ज्ञान-दान देते हैं। इसके बाद व्याघ्रचर्म पर बैठकर सर्वसाधारण को दर्शन देते तथा उनसे वार्तालाप करते हैं। मध्याह्न होने पर वे आवश्यक मठ प्रबन्ध-सम्बन्धी व्यवस्थाओं की आज्ञाएं प्रचारित कराते और फिर अन्तरायण में जा विराजते हैं। उस काल वे शास्त्रलेखन अथवा अदृष्ट-गणना करते हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार