36. गुप्त पत्र
सेनापति भद्रिक बड़ी देर तक शून्य अर्धरात्रि में अकेले चिन्तित भाव से पट-द्वार में इधर-उधर टहलते रहे। उस समय उनके मस्तिष्क में कुछ परस्पर-विरोधी ऐसे विचार चक्कर लगा रहे थे, जिनका उन्हें निराकरण नहीं मिल रहा था। उन्होंने बहुत देर तक कुछ सोचकर
दीपक ठीक किया और आसन पर आ भोजपत्र निकाल लेखनी हाथ में ली। इसी समय किसी के पद-शब्द से चौंककर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। सोम को देखकर उन्होंने आश्वस्त होकर कहा—
"तुम सोम, इस असमय में?"
"आर्य, एक चर है, राजगृह से पत्र लाया है।"
"पत्र क्या सम्राट् का है।"
"नहीं आर्य, सेनापति उदायि का पत्र है।"
"तो तुम पत्र ले आओ और चर की व्यवस्था कर दो।"
इतना कहकर सेनापति लिखने में लीन हो गए। सोम पत्र हाथ में लेकर चुपचाप मण्डप में खड़े हो गए।
लेख समाप्त होने पर सेनापति ने कहा—"भद्र, मुहर तोड़कर पत्र निकालो।"
सोम ने ऐसा ही किया।
सेनापति ने स्निग्ध-कोमल स्वर से कहा—"पत्र पढ़ो भद्र।" पत्र पर दृष्टि डालकर सोम ने कहा—"आर्य, पढ़ नहीं सकता, वह सांकेतिक भाषा में है।"
"अच्छा, तो कोई गुप्त पत्र है। वह संकेत-तालिका ले लो भद्र और तब सावधानी से पढ़ो।"
सोम ने पढ़ा— "...मैं आशा करता हूं कि शीघ्र ही आपको 'महाराज' कहकर सम्बोधित करूंगा।" सोम ने झिझककर सेनापति की ओर देखा। सेनापति ने मुस्कराकर कहा—
"पढ़ो भद्र, यह राजविद्रोही नहीं, राजनीति है। मगध-सम्राट् ही अकेले महाराज नहीं हैं और भी हैं। फिर अब सोमभद्र, जब तुमने आशा ही आशा हमें दी है तो फिर चम्पा के सिंहासन पर दधिवाहन के स्थान पर भद्रिक कुछ अनुपयुक्त भी नहीं है। कासियों का गण मगध साम्राज्य में मिल ही चुका है और अंग, बंग, कलिंग के महाराज मेरे अधीन हैं। मल्ल लड़खड़ा रहे हैं। मेरे अधीन भी पचास सहस्र सेना सुरक्षित है, जो इच्छानुसार उपयोग में लाई जा सकती है। फिर कलिंग महाराज ने बीस सहस्र सैन्य और सौ जलतरी देने का वचन दिया है..."
"परन्तु भन्ते सेनापति..."
"भद्र, पहले पत्र पढ़ लो।"