सब लोग चुपचाप सो गए। अब सोम ने शंब की ओर देखकर कहा—"शंब, तुझे एक कठिन काम करना होगा।"
शंब ने प्रसन्न मुद्रा से स्वर्ण-करधनी पर हाथ रखा।
सोम ने एक पतली लम्बी रस्सी को लेकर शंब को पीछे आने का संकेत दिया और वह दक्षिण बुर्ज की ओर चला। बुर्ज के निकट जाकर कहा—"शंब, तू जल में कितनी देर ठहर सकता है?" शंब ने संकेत से बताया कि वह काफी देर जल में ठहर सकता है। सोम ने वस्त्र उतार डाले और शंब के साथ जल में प्रवेश किया। इस समय चन्दना में ज्वार आ रहा था, बड़ी-बड़ी लहरें उठकर चट्टानों से टकरा रही थीं। दोनों ने दृढ़तापूर्वक रस्सी पकड़ रखी थी। वे ठीक बुर्जे के नीचे किसी चट्टान पर स्थिर होना चाहते थे, पर पानी की लहरें उन्हें दूर फेंक देती थीं। अन्त में वे वहां पहुंचने में सफल हुए। सोम एक चट्टान को दृढ़ता से पकड़कर और दांतों में रस्सी दबाकर बोले—"शंब, रस्से का दूसरा छोर लेकर पानी में गोता मार। देख तो, कितना जल है?"
शंब ने कमर में रस्सी बांधा, पैर ऊपर कर गोता लगाया, रस्सी पानी में घुसती ही चली गई। सोम की भुजाओं पर पूरा जोर पड़ रहा था, चट्टान छूटी पड़ रही थी दांत भी रस्सी के बोझ को नहीं संभाल पा रहे थे। एक-एक क्षण कष्ट और असह्य भार बढ़ रहा था। इसी समय रस्सी ढीली हुई और कुछ क्षण बाद ही शंब ने सिर निकाला। सोम ने रस्सी को नापकर जल का अनुमान किया। उसने सोचा, दो दण्ड- काल में जल चार हाथ और बढ़ जाएगा। उसने पांच हाथ ऊपर चट्टान में खूब मजबूती से वह रस्सी लपेट दी और उसका दूसरा छोर शंब के हाथ में देकर कहा—"शंब, खूब सावधानी से रहना, ज्योंही नाव यहां पहुंचे, रस्सी फेंक देना। ऐसा न हो कि नाव को लहरें दूर फेंक दें और ऊपर बुर्ज का भी ध्यान रखना। वहां से एक रस्सी नीचे लटकाई जाएगी। उसे भी तू थामे रहना। कर सकेगा ना?"
शंब बोला नहीं, उसने हंसकर स्वीकृति प्रकट की और जमकर चट्टान पर बैठ गया।
सोम ने गहरे जल में गोता लगाया और वहीं अदृश्य हो गया। अकेला असुर उस भयानक काली रात में अपनी कठिनाइयों के बीच बैठा रहा।