34. असम साहस
"तो आयुष्मान् सोम, तुम्हारी योजनाएं असफल हुईं?"
"यह क्यों, भन्ते सेनापति?"
"कल ही बैशाखी पर्व है, हम कुछ भी तो नहीं कर सके।"
"भन्ते, हमें अभी काम करने के लिए पूरे पांच प्रहर का समय है।"
"इन पांच प्रहरों में हम क्या कर लेंगे? दुर्ग पर आक्रमण के योग्य हमारे पास सेना कहां है?"
"भन्ते आर्य, इन चार दिनों में जो कुछ हम कर पाए हैं वह सब परिस्थितियों को देखते क्या सन्तोषप्रद नहीं है?"
"अवश्य है, परन्तु इससे लाभ? मेरी समझ में हमारा सर्वनाश और चार दिन के लिए टल गया। अब तो तुम आत्मसमर्पण के पक्ष में नहीं हो?"
"नहीं भन्ते सेनापति।"
"तो कल सूर्योदय के साथ हमारा सर्वनाश हो जाएगा।"
"नहीं भन्ते सेनापति, कल सूर्योदय से पूर्व हम दुर्ग अधिकृत कर लेंगे।"
"क्या तुम्हें किसी दैवी सहायता की आशा है?"
"नहीं भन्ते सेनापति, मैं अपने पुरुषार्थ पर निर्भर हूं।"
"तो तुम्हें अब भी आशा है?"
"आशा नहीं, भन्ते सेनापति, मुझे विश्वास है।"
"परन्तु आयुष्मान्, तुम करना क्या चाहते हो?"
"वह कल सूर्योदय होने पर आप देख लीजिएगा।"
"सौम्य सोम, तुम कोई असम साहस तो नहीं कर रहे। मैं तुम्हें किसी घातक योजना की अनुमति नहीं दूंगा।"
"हमारा कार्य अतिशय गुरुतर है सेनापति; और मेरी योजना भी वैसी ही गम्भीर है। परन्तु आप तनिक भी चिन्ता न कीजिए। आप केवल परिणाम को देखिए। कल सूर्योदय से पूर्व ही दुर्ग पर मागधी झंडा फहरता देखेंगे आप।"
"लेकिन कैसे आयुष्मान्?"
"भन्ते सेनापति, कृपा कर अभी आप मुझसे कुछ न पूछे। हां, आज की रात का संकेत-शब्द क्या है, कृपया यह बता दीजिए।"
"असम साहस ही सही।"
"बहुत ठीक, अब आप विश्राम कीजिए। अभी एक दण्ड रात गई है। मुझे बहुत समय है। मैं तनिक अपने आदमियों को ठीक-ठाक कर लूं।"
"तुम्हारा कल्याण हो आयुष्मान्, और कुछ?"