"जी हां, वह लुहार बना हुआ है। चम्पा के सम्पूर्ण मागध नागरिकों को उसने सशस्त्र कर दिया है।"
"बहुत अच्छा हुआ। वे कितने हैं?"
"बारह सौ से अधिक।"
"ठीक है। सेट्ठि धनिक ने चम्पा के बहुत-से सार्थवाहों की हुंडियां मेरे आदेश से खरीद ली हैं। बैशाखी के दिन प्रभात ही वे भुगतान मांगेंगे। मैं जानता हूं, राजकोष में स्वर्ण नहीं है। महाराज दधिवाहन मेरे रत्नों के मूल्य में जो स्वर्ण देंगे वह चम्पा के स्वर्णवणिकों से लेकर। बस, खाली हो जाएंगे और वे नगर-सेट्ठि की हुंडियां नहीं भुगता सकेंगे।"
"इसी बीच मागध नागरिक नगर में विद्रोह कर देंगे और यह हुंडियावन ही उसका कारण हो जाएगा। किन्तु कुण्डनी?"
"वह अपना मार्ग खोज लेगी। वैशाखी की रात्रि के चौथे दण्ड के प्रारम्भ होते ही दधिवाहन मर जाएगा।"
"तो ठीक उसी समय चम्पा-दुर्ग के पच्छिमी बुर्ज पर मागध तुरही बजेगी और समय तक तमाम प्रहरी वश में किए जा चुके होंगे। इसके बाद दो ही घड़ी में उन्मुक्त द्वार से मगध सेनापति प्रविष्ट हो दुर्ग अधिकृत कर लेंगे।"
"उत्तम योजना है। अब मैं इसी क्षण प्रस्थान करूंगा। तुम मेरे रोगी होने का प्रचार करना तथा बैशाखी पर्व तक सब-कुछ इसी भांति रखना। परन्तु किसी से भेंट करने में असमर्थ बता देना।"
"जैसी आज्ञा, किन्तु..."
"ठहरो, तुम सोम, बैशाखी के दिन चार दण्ड रात्रि रहते ही श्रावस्ती की ओर प्रस्थान करना। चम्पा-दुर्ग पर मागधी पताका देखने के लिए प्रभात तक रुकना नहीं। वहां सम्राट् विपन्नावस्था में हैं।" इतना कहकर मगध महामात्य ने आसन त्यागकर ताली बजाई।
एक दास ने निकट आकर अभिवादन किया।
अमात्य ने कहा—"कितनी रात्रि गई अभय?"
"रात्रि का द्वितीय दण्ड प्रारम्भ है आर्य।"
"और मेरा अश्व?"
"वह तैयार है।"
"कहां?"
"निकट ही, उसी उपत्यका के प्रान्त में।"
"ठीक है।"
अमात्य आगे बढ़े। सोम ने कहा—"क्या मेरा असुर आर्य का पथ-प्रदर्शन करे?"
"नहीं, मेरी व्यवस्था है।"
वे एकाकी ही अन्धकार में अदृश्य हो गए।