पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१४२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

सोम ने शम्बर को क्रुद्ध होते देख कहा—"महाशक्तिशाली शम्बर से कह दिया गया था कि यह तरुणी नागपत्नी है और मागधी मानुषी असुरों के भोग की नहीं। असुर अपने ही दोष से मरे हैं और महान् शम्बर ने उन्हें चुम्बन की आज्ञा दी थी।"

"परन्तु यह मानुषी अति भीषण है।" कहकर उसने सिंहासन से खड़े होने की चेष्टा की परन्तु लड़खड़ाकर गिर गया। सोम ने कहा—"मागध मानुष इससे भी अधिक भीषण हैं, यदि उन्हें शत्रु बना दिया जाए। क्या महान् शम्बर को मागध बिम्बसार की मित्रता स्वीकार है?"

शम्बर ने बड़बड़ाते हुए कहा—"मागध मानुषी अति भीषण होती है।" उसने कुण्डनी की ओर प्यासी चितवन से देखा। कुण्डनी ने मद्य का एक बड़ा पात्र लाकर उसके होंठों से लगा दिया। शम्बर उसे पीकर ओठ चाटता हुआ फिर सिंहासन से उठने लगा। इस बीच में बचे हुए असुर तरुण कुण्डनी से भयभीत हो-होकर भागने लगे थे। बहुत-से विवश मदमस्त पड़े थे। मृत असुरों के ढेर जहां-तहां पड़े थे। उनके कज्जलसमान निश्चल शरीर उस अग्नि के प्रकाश में भयानक दीख रहे थे। शम्बर के मन में भय समा गया। पर वह कुण्डनी की ओर वैसी ही प्यासी चितवन से देखने लगा। हठात् कुण्डनी ने फिर आकर एक मद्यभाण्ड उसके होंठों से लगा दिया। उसे भी गटागट पीकर शम्बर ने खींचकर कुण्डनी को हृदय से लगा, उन्मत्त भाव से हकलाकर कहा—"दे, मृत्यु-चुम्बन-मानुषी, तेरे-स्वर्ण अधरों को एक बार चूमकर मरने में भी सुख है।"

पर कुण्डनी ने यत्न से अपने को शम्बर के बाहुपाश से निकालकर फुर्ती से एक लीला-विलास किया और फिर दूसरा मद्यपात्र उसके होंठों से लगाया। फिर उसने सोम से संकेत किया। मद्य पीकर शम्बर शिलाखण्ड पर बदहवास पड़ गया। वह कुण्डनी को बरबस खींचकर अस्त-व्यस्त आसुरी भाषा में कहने लगा, "द-द-दे मानुषी, एक चुम्बन दे! और मगध-बिम्बसार के लिए मेरी मैत्री-ले। दे, चुम्बन दे!"

कुण्डनी ने गूढ़ मार्मिक दृष्टि से सोम की ओर देखा। वह सोच रही थी कि असुर को मारा जाय या नहीं। परन्तु सोम ने लपककर कुण्डनी को असुर शम्बर के बाहुपाश से खींचकर दूर कर दिया और हांफते-हांफते कहा—"नहीं-नहीं, असुर को मारा नहीं जायगा। बहुत हुआ।" फिर उसने शम्बर के कान के पास मुंह ले जाकर कहा—"महान् शम्बर चिरंजीव रहें। यह मागध बिम्बसार का मित्र है। उसे मृत्यु-चुम्बन नहीं लेना चाहिए।

शम्बर ने कुछ होंठ हिलाए और आंखें खोलने की चेष्टा की, परन्तु वह तुरन्त ही काष्ठ के कुन्दे की भांति निश्चेष्ट होकर गिर गया। उस समय बहुत कम असुर वहां थे, जो भयभीत होकर भाग रहे थे। कुण्डनी को एक ओर ले जाकर सोम ने कहा—"उसे छोड़ दे कुण्डनी।"

कुण्डनी अपनी विषज्वाला में लहरा रही थी। उसने कहा—"मूर्खता मत करो सोम, मरे वह असुर।"

"ऐसा नहीं हो सकता।" उसने इधर-उधर देखा। इसी समय अन्धकार से वह तरुण असुर नेत्रों में भय भरे बाहर आया, जिससे सर्वप्रथम परिचय हुआ था और जिसके प्राण सोम ने बचाए थे। उसने पृथ्वी पर प्रणिपात करके कहा—"भागो, वह शक्ति उठा लो, मैं चम्पा का मार्ग जानता हूं।"