"मेरे पुत्र को तुम क्या मुझसे अधिक जानती हो? यही मेरा पुत्र कृतपुण्य है।"
"यह नहीं है माता," चारों वधूटियों ने दृढ़ वाणी से कहा।
"परन्तु जब मैं कहती हूं, तब तुम्हें भी यही कहना चाहिए।"
"परन्तु हमने उसे भली भांति देख लिया है।"
"चुप, मैंने इसे 'नियुक्त' किया है।"
वधुओं का मुंह सूख गया और उनकी वाणी कण्ठ में अटक गई। वे भयभीत होकर सास का मुंह देखने लगीं।
वृद्धा ने कहा—"देखो, तुम समझदार और बुद्धिमती हो, मूर्खता करके बने-बनाए खेल को मत बिगाड़ देना। तुमने देख ही लिया है, वह सुन्दर, स्वस्थ और कुलीन है। तुम और मैं पुत्रहीना स्त्रियां हैं, ऐसी अवस्था में देश के कानून के आधार पर राजपुरुषों को ज्यों ही इस बात का पता लग जाएगा कि हम पुत्रहीना स्त्रियां हैं, तो राजपुरुष हमारी सारी सम्पत्ति को हरण करके राजकोष में मिला देंगे। तब हमें अपना सब स्वर्ण-रत्न, घर-बार खोकर पथ की भिखारिणी होकर रहना होगा। परन्तु इस नियुक्त पुरुष के द्वारा तुम चारों एक-एक क्षेत्रज पुत्र उत्पन्न कर लोगी तो वे ही हमारी इस अतुल सम्पदा के भोक्ता होंगे और तुम कुल-वधू बनकर रहोगी। सब भोगों को भोगोगी। यह कोई अधर्म की बात नहीं है। प्राचीन आर्यों की धर्म की रीति है। शान्तनु के धर्मात्मा पुत्र भीष्म ने इसी धर्म को अपनाकर कुरुवंश की रक्षा की थी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इससे मैं तुम्हारे सुख-कल्याण के लिए जैसा कहती हूं, तुम उसी प्रकार आचरण करो। इसी में तुम्हारा कल्याण होगा।"
बुढ़िया की बातें अन्ततः वधूटियों के मन में घर कर गईं और उन्होंने उसके आदेश के अनुसार इस नियुक्त पुरुष को पति-भाव से स्वीकार कर लिया। इस प्रकार हर्षदेव अपने संकल्प को भूल धन-सम्पदा, ऐश्वर्य और युवती स्त्रियों के सुख में डूब गया। कृतपुण्य होकर वह सेट्ठिपुत्र का सम्पूर्ण अभिनय करने लगा। किसी को भी उस पर सन्देह नहीं हुआ; जिन्होंने सन्देह किया, उन्हें बुढ़िया ने साम-दान-दण्ड-भेद से वश में कर लिया।