एकमात्र उपाय था।
"इसी कोसल में देखो मित्र, एक ओर ये सेट्ठियों की और महाराजों की गगनचुम्बी अट्टालिकाएं हैं, जो स्वर्ण-रत्न और सुखद साजों से भरी-पूरी हैं। दूसरी ओर वे निरीह और कर्मकर, शिल्पी और कृषक हैं जो अति दीन-हीन हैं। क्या इन असंख्य प्रतिभाशाली, परिश्रमीजनों की भयानक दरिद्रता का कारण ये इन्द्रभवन तुल्य प्रासाद नहीं हैं? कोसल में भी देखा गया है और मगध साम्राज्य में भी देखा है। नगरों में, निगमों में, गांवों में भी चतुर शिल्पी भांति-भांति की वस्तुएं तैयार करते, तन्तुवाय, स्वर्णकार, ताम्रकार, लोहकार, रथकार, रथपति इन सभी के हस्त कौशल से ये प्रासाद बनते हैं। परन्तु उनके हाथ से बनाए ये सम्पूर्ण अलौकिक पदार्थ तैयार होते ही उनके हाथ से निकलकर इन्हीं राजाओं, उनके सामन्तों, सेट्ठियों एवं ब्राह्मणों के हाथ में पहुंच जाते हैं। उनके लिए वे सपने की माया हैं। वे सब तैयार वस्तुएं गांवों से-निगमों से नगरों में, वहां से पण्यागारों में, सौधों और प्रासादों में संचित हो जाती हैं। उनका बहुत-सा भाग पारस्य और मिस्र को चला जाता है, बहुत-सा ताम्रलिप्ति, सुवर्णद्वीप पहुंच जाता है और उससे लाभ किनको? इन राजाओं को, जो भारी कर लेते हैं, या उन सेट्ठियों को, जो इन गरीबों की असहायावस्था से पूरा लाभ उठाते हैं। या इन ब्राह्मणों को, जिन्हें सर्वश्रेष्ठ वस्तु दान करना ये मूर्ख राजा अपना सबसे बड़ा पुण्य समझते हैं।"
युवराज की आंखें चमकने लगीं। उसने कहा—"तुम एक रहस्य पर पहुंच गए हो मित्र, तुम्हारी मित्रता पाकर मैं कृतार्थ हुआ हूं। मित्र, एक बार मैं तथागत गौतम को देखना चाहता हूं। यद्यपि मैं भी शाक्य रक्त से हूं, पर शाक्यों का मैं परम शत्रु हूं।"
"तथागत को शत्रु-मित्र समान हैं राजपुत्र! देखोगे तो जानोगे। कलन्दक निकाय के उस बूढ़े काले भिक्षु को जानते हैं आप?"
"क्या महास्थविर धर्मबन्धु की ओर संकेत है मित्र, जिन्होंने काशी से आकर यहां साकेत में संघ स्थापना की है?"
"हां, वे चाण्डाल-कुल के हैं। वे साकेत के सभी भिक्षुओं के प्रधान हैं। समृद्ध श्रोत्रिय ब्राह्मण स्वर्णाक्षी-पुत्र भारद्वाज और सुमन्त उनके सामने उकडू बैठकर प्रणाम करते हैं। उन दोनों ने उन्हीं से प्रव्रज्या और उपसम्पदा ली है।"
"यह मैंने सुना है मित्र, पर वे बड़े भारी विद्वान् भी तो हैं।"
"पर ब्राह्मणों की चलती तो विद्वान् हो सकते थे? आज वे देवपद-प्राप्त दिव्य पुरुष हैं। तथागत अपने संघ को समुद्र कहते हैं, जहां सभी नदियां अपने नाम-रूप छोड़कर समुद्र हो जाती हैं।"
"परन्तु कलन्दक निकाय को छोड़ इसी साकेत में तो ऊंच-नीच के भेदभाव हैं।" विदूडभ ने उदास होकर कहा।
"सो तो है ही; और जब तक मोटे बछड़ों का मांस खानेवाले और सुन्दरी दासियों को दक्षिणा में लेनेवाले ब्राह्मण रहेंगे, और रहेंगे उन्हें अभयदान देने वाले ये राजा लोग, तब तक ऐसा ही रहेगा, मित्र। ये तो स्वर्ण, दासी और मांस के लिए कोई भी ऐसा काम, जिससे इनके आश्रयदाता राजा और सामन्त प्रसन्न हों, खुशी से करने को तैयार हैं। देखा नहीं, कात्यायन, वररुचि, शौनक और वसिष्ठ ने अपनी-अपनी स्मृतियां बनाई हैं और उनमें दिल