"तुम एक उत्तम युवक हो और मनुष्य के सब गुणों से परिपूर्ण हो।" युवराज ने अपनी बहुमूल्य मुक्ता-माल उतारकर वैद्य के कंठ में डालकर कहा—"यह स्नेह-उपहार स्वीकार करो मित्र।"
वैद्य ने धीरे-से माला हाथ में लेकर कहा—"यह उत्कोच है राजपुत्र, आपकी ऐसी ही इच्छा है तो कोई साधारण-सा उपहार दे दीजिए।"
"नहीं-नहीं मित्र, अस्वीकार न करो। यह अति साधारण है।"
"तब जैसी राजपुत्र की आज्ञा!"
"तो मित्र कहो—क्या पिताजी को तुम कुछ लाभ पहुंचा सके?"
"तनिक भी नहीं राजपुत्र, मैंने उनसे प्रथम ही कह दिया था कि उनकी यौवन ग्रन्थियां और चुल्लक ग्रन्थियां निष्क्रिय हो गई हैं। हृदय पर बहुत मेद चढ़ गया है। यदि वे कोई वाजीकरण सेवन करेंगे तो उनके जीवन-नाश का भय हो जाएगा।"
"फिर भी उन्होंने वाजीकरण भक्षण किया?"
"तीन-तीन बार राजपुत्र।"
"और तीनों बार निष्फल?"
"यह तो होना ही था। औषध केवल शरीर-यन्त्र ही को तो क्रियाशील करती है और इन्द्रिय-व्यापार उसी से चलता है। इस प्राकृतिक नियम का क्या किया जाय?"
"वास्तव में आचार्य माण्डव्य ने पिताजी को कामुक और अन्धा बना रखा है। परन्तु क्या आचार्य के इस रसायन में कुछ तत्त्व है!"
"मैंने उसका अध्ययन नहीं किया राजपुत्र, परन्तु रसायनतत्त्व सत्य है। आचार्य माण्डव्य मुनि बृहस्पति के शिष्य हैं, जिनका चार्वाक मत आजकल खूब प्रचार पर है। उनका तो यह सिद्धांत ही है कि शरीर को कष्ट मत दो। भाग्य नहीं, पररुषार्थ ही मुख्य है। अपने पर निर्भर रहो। परमेश्वर कुछ नहीं है, परलोक नहीं है, वेद धोखे की टट्टी है, बुद्धि ही सब कुछ है। आत्मा पंचतत्त्व से बना है। प्रत्यक्ष ही सत्य प्रमाण है। वह गौतम के न्याय का भी विरोध करते हैं और ब्राह्मणों के यज्ञों का भी। शूद्र और संकर सभी ने उनके मत को पसन्द किया है। इससे ब्राह्मणों का प्रभुत्व तो नष्ट हुआ है, पर अनाचार बहुत बढ़ा है। इन वंचक आर्यों को भी तो इससे बहुत सहारा मिला है। अब वे खुल्लमखुल्ला दासियों और रखेलियों को भेड़-बकरियों के रेवड़ की भांति अन्तःपुर में भेज रहे हैं और उनकी सन्तानों को कुत्तों और जानवरों की भांति समाज और संगठन से च्युत कर संकर बना देते हैं।"
"यह सत्य है। परन्तु सबसे बुरा प्रभाव तो वैश्यों पर पड़ा है। बेचारे वैश्य प्रतिलोम विवाह कर नहीं सकते। वे केवल अपनी और शूद्रों की ही स्त्रियों को घरों में डाल सकते हैं। उनका काम कृषि, पशुपालन और वाणिज्य है, जिसमें शूद्र और अतिशूद्र कर्मकर ही उनके सम्पर्क में रहते हैं। अतः उन्हीं में उनका रक्त मिल जाने से वे आर्यों से अति हीन, कुरूप और कुत्सित होते जा रहे हैं।"
"परन्तु इसका उपाय ही क्या है, जब तक आर्यों का समूल उच्छेद न हो।"
"वह होने का भी समय आ गया है, राजपुत्र। सर्वजित् निग्रन्थ महावीर और शाक्यपुत्र गौतम ने आर्यों के धर्म का समूल नाश प्रारम्भ कर दिया है। उन्होंने नया धर्मचक्र-प्रवर्त्तन किया है जहां वेद नहीं हैं, वेद का कत्र्ता ईश्वर नहीं है, बड़ी-बड़ी दक्षिणा लेकर