"बांट दीजिए महाराज, तरुणों को उनकी आवश्यकता है। एक यज्ञ रचकर सुपात्र ऋत्विज ब्राह्मणों को उन्हें दान दीजिए।"
"किन्तु ये स्वार्थी लोलुप ब्राह्मण इधर सुन्दरी दासियों को ले जाते हैं, उधर उनके रत्नाभरण उतारकर पांच-पांच निष्क में बूढ़ों को बेच देते हैं।"
"इसमें बूढ़ों का प्रत्युपकार भी तो होता है महाराज, उन्हें तरुणियों की अत्यधिक आवश्यकता है।"
"फिर इस बूढ़े की ओर आचार्य क्यों नहीं ध्यान देते? क्या आपको विदित नहीं कि गान्धार-कन्या कलिंगसेना अन्तःपुर में आ रही हैं। आपकी अमोघ रसायन-विद्या किस काम आएगी?"
"क्यों? क्या तक्षशिला के उस तरुण मागध वैद्य का वाजीकरण व्यर्थ गया?"
"जीवक कौमारभृत्य की बात कहते हैं आचार्य?"
"यही तो उसका नाम है।"
"बिलकुल व्यर्थ? आचार्य, सुना था, वह तक्षशिला से चिकित्सा में पारंगत होकर आया है। मैंने बड़ी आशा की थी।"
"परन्तु अब बिलकुल आशा नहीं रही, महाराज?"
"आचार्यपाद जब तक हैं, तब तक तो आशा है। मुनि बृहस्पति के फिर आप शिष्य कैसे?"
"तब यह लीजिए महाराज, रसायन देता हूं।"
यह कहकर एक छोटा-सा बिल्वफल आचार्य ने महाराज के हाथ पर रखकर कहा—"इसमें एक ही मात्रा रसायन है। यह देह-सिद्धि तथा लोह-सिद्धि दोनों ही कार्य करेगी। इससे चाहे तो सामने के सम्पूर्ण पर्वत को स्वर्ण का बना लें महाराज चाहे अपने इस गलित-वृद्ध शरीर को वज्र के समान दृढ़ बना लें और स्वच्छन्द नव विकसित अनिन्द्य गान्धार पुत्री के सौन्दर्य का आनन्द लूटें।"
"आचार्य का बड़ा अनुग्रह है। स्वर्ण-राशि की मेरे कोष में कमी नहीं। यह देह उपलब्ध सुख-साधनों के भोगने में समर्थ हो, यही चाहता हूं।"
"तो राजन्, चिरकाल तक उन सुख-साधनों का भोग कीजिए। मैं आशीर्वाद देता हूं।"
आचार्य हंसते हुए चले गए। महाराज उत्साहित हो धीरे-धीरे दो युवतियों के कन्धों पर हाथ रख महल में लौटे। धूप तेज हो गई थी।