अधिकार में भी जनपद इतना प्रसन्न हो सकता है, यह मैंने सोचा भी नहीं था।"
"आओ प्रिये, हम भी स्नान करके शरीर की थकान मिटा लें। हवा बड़ी सुन्दर चल रही है।"
"ऐसा ही हो प्रिये!" मल्लिका ने कहा। बन्धुल घोड़े से कूद पड़ा और हाथ का सहारा देकर उसने मल्लिका को उतारा। एक दास को संकेत से निकट बुलाकर कहा— "अश्वों को मल-दल कर ठीक कर दे मित्र, ये चार निष्क ले, मैरेय के लिए।"
दास ने हंसकर रजत-खण्ड हाथ में ले लिए और अश्वों की रास संभाली।
दोनों यात्रियों ने वस्त्र उतारे और वे अनायास ही जल-राशि में घुस गए। उनके हस्त-लाघव और कुशल तैराकी से सभी आश्चर्य करने लगे। उन्होंने तैरने वालों को ललकारा—"बढ़ो मित्रो, जो कोई उस तट पर पहले पहुंचेगा उसे मित्रों सहित भरपेट मैरेय पीने को मिलेगा।" बहुत तरुण-तरुणियां हंसकर उनके पीछे हाथ मारने लगे। किनारे के लोग हर्षोत्फुल्ल होकर चिल्लाने लगे। सबसे आगे बन्धुल-दम्पती थे, सबसे पहले उन्होंने तट स्पर्श किया। मल्लिका हांफती हुई हंसने लगी। लोगों ने हर्ष-ध्वनि की। सम्पन्न युवक ने अपनी नौका पास लाकर कहा—"स्वागत मित्र, मेरी यह नौका सेवा में उपस्थित है, इस पर चढ़कर मेरी प्रतिष्ठा वृद्धि करें।"
बन्धुल ने हाथ के सहारे से मल्लिका को नौका पर चढ़ाते हुए कहा—
"हम लोग अभी-अभी साकेत आ रहे हैं।"
"कहां से मित्र!"
"कुशीनारा से।"
"अच्छा, बन्धुल मल्ल की कुशीनारा से।"
"मित्र, मैं ही बन्धुल मल्ल हूं।"
"तेरी जय हो मित्र!" फिर उसने हाथ उठाकर पुकारकर कहा—"कुशीनारा के मल्ल बन्धुल मित्र का साकेत में स्वागत है!"
बहुत लोग नौका के पास उमड़ आए। बहुतों ने दम्पती पर पुष्पों की वर्षा की। नौका के स्वामी ने हंसकर कहा—"मैं हिरण्यनाभ कौशल्य हूं मित्र, साकेत का क्षत्रप, बन्धुल के शौर्य से मैं परिचित हूं।"
"हिरण्यनाभ कौशल्य की गरिमा से मैं भी अविदित नहीं हूं क्षत्रप, तक्षशिला में गुरुपद से मैंने आपका नाम सुना था।"
"और मैंने भी मित्र, महाराजाधिराज से तेरी गुण-गरिमा सुनी है। अब इधर किधर?"
"महाराज के दर्शन-हेतु।"
"साधु, महाराज आजकल यहीं हैं, कल दर्शन हो जाएंगे। परन्तु आज मेरे अतिथि रहो मित्र!"
"मल्लिका, ये महाक्षत्रप महाराज हिरण्यनाभ कौशल्य हैं। गुरुपद ने कहा था, वे अवन्ति गुरुकुल के सर्वश्रेष्ठ स्नातक हैं और ज्ञान-गरिमा में काशी के सम्पूर्ण राजाओं से बढ़कर हैं।"
"मैं अपने पति का अभिनन्दन करती हूं, ऐसे गौरवशाली मित्र के प्राप्त होने पर।"