"मां की वे परवाह कहां करते हैं? मैं ही उन्हें समय पर स्नान-आह्निक कराती हूं। वह सामने घर आ गया। पिताजी द्वार पर खड़े हैं।...पिताजी, देखो तो, मैं किसे ले आई हूं!"
बन्धुल को देखकर गौतम सांकृत्य बाहर आकर बोले—"अरे मित्र बन्धुल, स्वस्ति, स्वस्ति!"
"स्वस्ति मित्र गौतम, कहो न्यायदर्शन पूरा हुआ या नहीं?"
"अभी नहीं मित्र, इस धूर्त बोधायन को मैं कहता हूं, मसल डालूंगा। मैंने धर्मसूत्र रचे हैं बन्धुल!"
"सच, तो मित्र गौतम सांकृत्य योद्धा, दार्शनिक और धर्माचार्य हैं!"
"ये दुष्ट द्रविड़ कुछ करने दें तब न? अनार्य संस्कृति को आर्य संस्कृति में घुसेड़ रहे हैं। उधर यह ज्ञातिपुत्र महावीर, परन्तु अरे मल्लिकादेवी का स्वागत करना तो मैं भूल ही गया।"
"घर में स्वागत कैसा मित्र, फिर गोपा ने नदी-तीर पर ही यह शिष्टाचार पूरा कर दिया।"
"बहुत याद करती है गोपा तुम्हें बन्धुल! तुम्हारे उस आखेट की उसे याद है, जब उस गवय को एक ही बाण से तुमने मारा था। किन्तु हां, बेटी गोपा, जैमिनी कहां गया?"
"समिधा लाने गया था, वह आ रहा है।"
"जैमिनी, ये हमारे मित्र मल्ल बन्धुल आए हैं, मल्लिका भी है, एक वत्सतरी को लाकर काट तो मेरे द्वार पर वत्स, इन सम्मान्य अतिथियों के सम्मान में। क्यों मित्र, कोमल वत्सतरी का मांस, ओदन और मधु कैसा रहेगा?"
"बहुत बढ़िया, मित्र गौतम!"
"तो बेटी गोपा, देवी मल्लिका को भीतर ले जा और बन्धुल के लिए अर्घ्यपाद्य ला। क्यों मित्र, यहीं देवद्रुम की छाया में बैठा जाए?"
"यहीं अच्छा है। मित्र गौतम, बोधायन की क्या बात कह रहे थे?"
"कह रहा था, किन्तु ठहरो। गोपा, थोड़ा शूकर-मार्दव आग पर भून ला और पुरानी मैरेय भर ला, बन्धुल थका हुआ है।"
"आग तैयार है, मैं अभी भून लाती हूं। सोमक के हाथ मैरेय भेज रही हूं।"
"बैठ मित्र, हां, बोधायन नास्तिक कहता है—स्त्री के साथ अथवा यज्ञोपवीत बिना किए बालकों के साथ भोजन करने में दोष नहीं है, बासी खाना भी बुरा नहीं है और मामा फूफू की कन्या से विवाह भी विहित है। वह भारत के तीन खण्ड करता है और गंगा-यमुना के मध्य देश को सर्वोत्तम कहता है। वह भारत के आरट्ट, दक्षिण के कारस्कर, उत्पल के पुण्ड्र तथा बंग, कलिंग के सौवीरों को प्रायश्चित्त-विधान कहता है।"
"परन्तु मित्र गौतम, ऐसा दीखता है कि तुम्हारा न्यायदर्शन अब धरा रह जाएगा।"
"ऐसा क्यों मित्र!"
"तुमने क्या शाक्यपुत्र गौतम का नाम नहीं सुना?"
"सुना क्यों नहीं, वह क्या आजकल काशी में है?"
"नहीं, राजगृह गया है, परन्तु उसका धर्म आग की भांति फैल रहा है। उसके आगे