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चतुर्थ सर्ग

तम - परि - पूरित अमा - यामिनी - अंक में।
नही विलसती मिलती है राका - सिता ॥
होती है मति, रहित सात्विकी - नीति से ।
स्वत्व - ममत्व महत्ता - सत्ता मोहिता ॥३८॥

किन्तु हुए हैं महि मे ऐसे नृमणि भी।
मिली देवतो जैसी जिनमे दिव्यता ।।
जो मानवता तथा महत्ता मूर्ति थे।
भरी जिन्होने भव - भावो मे भव्यता ॥३९॥

वैसे ही है आप भूतियाँ आप की।
हैं तम - भरिता - भूमि की अलौकिक - विभा ।।
लोक - रंजिनी पूत - कीर्ति - कमनीयता।
है सज्जन सरसिज निमित्त प्रात - प्रभा॥४०॥

बात मुझे लोकापवाद की ज्ञात है।
वह केवल कलुपित चित का उद्गार है।
या प्रलाप है ऐसे पामर - पुंज का।
अपने उर पर जिन्हें नहीं अधिकार है ॥४१।।

होती है सुर - सरिता अपुनीता नही ।
पाप - परायण के कुत्सित आरोप से ॥
होंगी कभी अगौरविता गौरी नही।
किन्ही अन्यथा कुपित जनों के कोप से ॥४२॥