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चतुर्थ सर्ग

जब आकर अनुकूल - कूल पर वह लगी।
तब रघुवंश - विभूपण उस पर से उतर ।।
परम - मन्द - गति से चल कर पहुंचे वहाँ।
आश्रम मे थे जहाँ राजते ऋपि प्रवर ॥१८॥

रघुनन्दन को वन्दन करते देख कर ।
मुनिवर ने उठ उनका अभिनन्दन किया ।।
आशिष दे कर प्रेम सहित पूछी कुशल ।
तदुपरान्त आदर से उचितासन दिया ॥१९।।

सौम्य - मूर्ति का सौम्य - भाव गंभीर - मुख ।
आश्रम का अवलोक शान्त - वातावरण ।।
विनय - मूर्ति ने बहुत विनय से यह कहा ।
निज - मर्यादित भावों का कर अनुसरण ।।२०।।

आपकी कृपा के बल से सब कुशल है।
सकल - लोक के हित व्रत मे मैं हूँ निरत ।।
प्रजा सुखित है शान्तिमयी है मेदिनी ।
सहज - नीति रहती है सुकृतिरता सतत ॥२१॥

किन्तु राज्य का संचालन है जटिल-तम ।
जगतीतल है विविध - प्रपंचो से भरा।
है विचित्रता से जनता परिचालिता।
सदा रह सका कब सुख का पादप हरा ।।२२।।