पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/९२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५६
वैदेही-वनवास

विपुल - पुलकिता नवल - शस्य सी श्यामला।
बहुत दूर तक दूर्वावलि थी शोभिता ।।
नील - कलेवर - जलधि ललित - लहरी समा।
मंद - पवन से मंद मंद थी दोलिता ।।१३।।

कल कल रव आकलिता - लसिता - पावनी ।
गगन - विलसिता सुर - सरिता सी सुन्दरी ॥
निर्मल - सलिला लीलामयी लुभावनी ।
आश्रम सम्मुख थी सरसा - सरयू सरी ॥१४॥

परम - दिव्य - देवालय उसके कूल के।
कान्ति - निकेतन पूत - केतनों को उड़ा॥
पावनता भरते थे मानस - भाव में।
पातक - रत को पातक पंजे से छुड़ा ॥१५॥

वेद - ध्वनि से मुखरित वातावरण था।
स्वर - लहरी स्वर्गिक - विभूति से थी भरी ॥
अति - उदात्त कोमलतामय - आलाप था।
मंजुल - लय थी हृत्तंत्री झंकृत करी ॥१६॥

धीरे धीरे तिमिर - पुंज था टल रहा ।
रवि - स्वागत को उपासुन्दरी थी खड़ी ॥
इसी समय सरयू - सरि - सरस - प्रवाह में।
एक दिव्यतम नौका दिखलाई पड़ी ॥१७॥