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वक्तव्य
करुणरस

करुणरस द्रवीभूत हृदय का वह सरस-प्रवाह है, जिससे सहृदयता क्यारी सिञ्चित, मानवता फुलवारी विकसित और लोकहित का हरा भरा उद्यान सुसज्जित होता है। उसमें दयालुता प्रतिफलित दृष्टिगत होती है, और भावुकता-विभूति-भरित। इसी लिये भावुक-प्रवर-भवभूति की भावमयी लेखनी यह लिख जाती है—

एकोरसः करुण एव निमित्त भेदाद्।
भिन्नः पृथक् पृथिगिवाश्रयते विवर्तान्॥
आवर्त्तबुद्बुदतरंग मयान् विकारान्।
अम्भो यथा सलिलमेवहि तत् समस्तम्॥

एक करुणरस ही निमित्त भेद से शृंगारादि रसों के रूप में पृथक् पृथक् प्रतीत होता है। श्रृंगारादि रस करुणरस के ही विवर्त्त हैं, जैसे भँवर, बुलबुले और तरंग जल के ही विकार हैं। वास्तव में ए सब जल नही हैं, केवल नाम मात्र की भिन्नता है। ऐसा ही सम्बंध करुणरस और शृंगारादि रसों का है।

संभव है यह विचार सर्व-सम्मत न हो, उक्त उक्ति में अत्युक्ति दिखलाई पड़े, किन्तु करुणरस की सत्ता की व्यापकता और महत्ता निर्विवाद है। रसों में श्रृंगाररस और वीररस