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तृतीय सर्ग
प्रजा - रंजन हित - साधन भाव ।
राज्य - शागन का है वर - अंग ।।
है प्रकृति प्रकृत नीति प्रतिकृल ।
लोक आराधन व्रत का भंग ॥४॥
क्यों टले बढा लोक - अपवाद ।
इस विपय मे है क्या कर्तव्य ।।
अधिक हित होगा जो हो ज्ञात ।
बन्धुओं का क्या है वक्तव्य ॥५॥
भरत सविनय बोले ससार ।
विभामय होते, है तम - धाम ।।
वही है अधम जनों का वास ।
जहाँ है मिलते लोक - ललाम ॥६॥
तो नहीं नीच - मना है अल्प।
यदि मही मे है महिमावान ।।
बुरों को है प्रिय पर - अपवाद ।
भले है करते गौरव गान ।।७।।
किसी को है विवेक से प्रेम ।
किसी को प्यारा है अविवेक ।।
जहाँ है हंस - वंश - अवतंस ।
वारी पर है बक - वृत्ति अनेक ॥८॥