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द्वितीय सर्ग

हुए उत्तेजित मन के भाव ।
शान्त बन जाते हैं तत्काल ॥
याद कर मानवता का मंत्र ।
लोक नियमन पर ऑखें डाल ॥६३॥

समय पर जल देते हैं मेघ ।
सताती नहीं ईति की भीति ॥
दिखाते कही नही दुर्वृत्त ।
भरी है सब में प्रीति प्रतीति ॥६४॥

फिर हुई जनता क्यों अप्रसन्न ।
हुआ क्यों प्रबल लोक - अपवाद ॥
सुन रहे हैं क्यों मेरे कान ।
असंगत अ - मनोरम सम्वाद ॥६५॥

लग रहा है क्यो वृथा कलंक ।
खुला कैसे अकीर्ति का द्वार ॥
समझ मे आता नही रहस्य ।
क्या करूँ मैं इसका प्रतिकार ॥६६॥

दोहा


इन बातों को सोचते, कहते सिय गुण ग्राम ।
गये दूसरे गेह में, धीर धुरंधर राम ॥६७।।