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द्वितीय सर्ग

सवल के सारे अत्याचार ।
शमन में हूँ अद्यापि प्रवृत्त ।
निर्बलों का बल बन दल दुःख ।
विपुल पुलकित होता है चित्त ॥५३॥

रहा रक्षित उत्तराधिकार ।
छिना मुझसे कब किसका राज ॥
प्रजा की बनी प्रजा - सम्पत्ति ।
ली गई कभी न वह कर व्याज ॥५४॥

मुझे है कूटनीति न पसंद ।
सरलतम है मेरा व्यवहार ॥
वंचना विजितों को कर व्योंत ।
बचाया मैंने वारंवार ॥५५॥

समझ नृप का उत्तर - दायित्व ।
जान कर राज-धर्म का मर्म ।।
ग्रहण कर उचित नम्रता भाव ।
कर्मचारी करते हैं कर्म ॥५६॥

भूल कर भेद भाव की बात ।
विलसिता समता है सर्वत्र ।।
तुष्ट है प्रजामात्र बन शिष्ट ।
सीख समुचित स्वतंत्रता मंत्र ॥५७॥