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वैदेही-वनवास

सत्य होवे या वह हो झूठ।
या कि हो कलुपित चित्त प्रमाद ।।
निद्य है है अपकीर्ति - निकेत ।
लांछना - निलय लोक - अपवाद ॥४८॥

भले ही कुछ न कहें बुध-वृन्द ।
सज्जनों को हो सुने विषाद ।
किन्तु है यह जन-रव अच्छा न ।
अवांछित है यह वाद - विवाद ॥४९॥

मिल सका मुझे न इसका भेद ।
हो रहा है क्यों अधिक प्रसार ॥
बन रहा है क्या साधन - हीन ।
लोक - आराधन का व्यापार ॥५०॥

प्रकृति गत है, है उर में व्याप्त ।
प्रजा - रंजन की नीति - पुनीत ।।
दण्ड में यथा - उचित सर्वत्र ।
है सरलता सद्भाव गृहीत ॥५१॥

न्याय को सदा मान कर न्याय ।
किया मैंने न कभी अन्याय ॥
दूर की मैंने पाप - प्रवृत्ति ।
पुण्यमय करके प्रचुर - उपाय ।।५२।।