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द्वितीय सर्ग
आदि में थी यह चर्चा अल्प ।
कभी कोई कहता यह वात ।।
और कहते भी वे ही लोग ।
जिन्हे था धर्म-मर्म अज्ञात ॥१३॥
अब नगर भर में वह है व्याप्त ।
बढ़ रहा है जन चित्त-विकार ।।
जनपदों ग्रामों में सब ओर ।
हो रहा है उसका विस्तार ॥१४॥
किन्तु साधारण जनता मध्य ।
हुआ है उसका अधिक प्रसार ।।
उन्ही के भावों का प्रतिविम्ब ।
रजक का है निन्दित - उद्गार ॥१५॥
विवेकी विज्ञ सर्व - बुध - वृन्द ।
कर रहे हैं सद्बुद्धि प्रदान ॥
दिखाकर दिव्य - ज्ञान - आलोक ।
दूर करते हैं तम अज्ञान ॥१६॥
अवांछित हो पर है यह सत्य ।
बढ़ रहा है वहु - वाद - विवाद ॥
प्रभो मैं जान सका न रहस्य ।
किन्तु है निद्य लोक - अपवाद ॥१७॥