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प्रथम सर्ग

ऑधी का उत्पात पतन उपलों का बहुधा।
हिल हिल कर जो महानाश करती है वसुधा॥
ज्वालामुखी-प्रकोप उदधि का धरा निगलना।
देशों का विध्वंस काल का आग उगलना ॥६८॥

इसी तरह के भव-प्रपंच कितने हैं ऐसे ।
नही बताये जा सकते हैं वे हैं जैसे ।।
है असंख्य ब्रह्मांड स्वामिनी प्रकृति कहाती ।
बहु-रहस्यमय उसकी गति क्यों जानी जाती ॥६९॥

कहाँ किसलिये कव वह क्या करती है क्यों कर।
कभी इसे बतला न सकेगा कोई बुधवर ।।
किन्तु प्रकृति का परिशीलन यह है जतलाता ।
है स्वाभाविकता से उसका सच्चा नाता ।।७०॥

है वह विविध विधानमयी भव-नियमन-शीला ।
लोक-चकित-कर है उसकी लोकोत्तर लीला ।
सामञ्जस्यरता प्रवृत्ति सद्भाव भरी है।
चिरकालिक अनुभूति सर्व संताप हरी है ॥७१॥

यदि उसकी विकराल मूर्ति है कभी दिखाती ।
तो होती है निहित सदा उसमे हित थाती ।।
तप ऋतु आकर जो होता है ताप विधाता।
तो ला कर घन वनता है जग-जीवन-दाता ।।७२।।