यदि है प्रातः दीप पवन गति से बुझ जाता।
तो होता है वही जिसे जन-कर कर पाता।
सूखा पत्ता नहीं किरण ग्राही होता है।
होके रस से हीन सरसताये खोता है ॥६३॥
हरित दलों के मध्य नहीं शोभा पाता है।
हो निस्सार चिटप में लटका दिखलाता है।
अतः पवन स्वाभाविक गति है उसे गिराती।
जिससे वह हो सके मृत्तिका बन महिथाती ॥६४॥
सहज पवन की प्रगति जो नहीं है सह जाती।
तो रोगी को सावधानता है सिखलाती ।।
रूपान्तर से प्रकृति उसे है डाँट बताती।
स्वास्थ्य नियम पालन निमित्त है सजग बनाती ॥६५॥
यह चाहता समीर न था तृण उड़ जल जाये।
थी न आग की चाह राख वह उसे बनाये ॥
किन्तु पलक मारते होगई उभय क्रियायें ।
होती हैं भव में प्रायः ऐसी घटनायें ॥६६॥
जो हो तृण के तुल्य तुच्छ उड़ते फिरते हैं।
प्रकृति करों से वे यों ही शासित होते हैं।
यह शासन कारिणी वृत्ति श्रीमती प्रकृति की।
है बहु मंगलमयो शोधिका है संमृति की ॥६७॥
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वैदेही-वनवास