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प्रथम सर्ग

शीतल मंद समीर सौरभित हो बहता है।
भव कानों में बात सरसता की कहता है ।
प्राणि मात्र के चित को वह पुलकित करता है।
प्रातः को प्रिय बना सुरभि भू मे भरता है ।।५८।।

सुमनावलि को हँसा खिलाता है कलिका को।
लीलामयी बनाता है लसिता लतिका को ।।
तरु दल को कर केलि-कान्त है कला दिखोता।
नर्तन करना लसित लहर को है सिखलाता ।।५९।।

ऐसे सरस पवन प्रवाह से, जो बुझ जावे ।
कोई दीपक या पत्ता गिरता दिखलावे ।।
या कोई रोगी शरीर सह उसे न पावे ।
या कोई तृण उड़ दव मे गिर गात जलावे ॥६०॥

तो समीर को दोपी कैसे विश्व कहेगा।
है वह अपचिति-रत न अत निर्दोप रहेगा ।।
है स्वभावत प्रकृति विश्वहित में रत रहती।
इसी लिये है विविध स्वरूपवती अति महती ॥६१॥

पंचभूत उसकी प्रवृत्ति के हैं परिचायक ।
है उसके विधान ही के विधि सविधि-विधायक।।
भव के सब परिवर्तन है स्वाभाविक होते ।
मंगल के ही वीज विश्व मे वे है बोते ॥६२॥