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वैदेही-वनवास

कहा राम ने यहाँ इसलिये मैं हूँ आया ।
मुदित कर सकूँ तुम्हें प्रियतमे कर मनभाया ।
किन्तु समय ने जब है सुन्दर समा दिखाया ।
पड़ी किस लिये हृदय-मुकुर में दुख की छाया ॥५३॥

गर्भवती हो रखो चित्त उत्फुल सदा ही।
पड़े व्यथित कर विपय की न उसपर परछॉही ।।
माता - मानस - भाव समूहों में ढलता है।
प्रथम उदर पलने ही में बालक पलता है ॥५४।।

हरे भरे इस पीपल तरु को प्रिये विलोको।
इसके चञ्चल - दीप्तिमान - दल को अवलोको ।
वर - विशालता इसकी है बहु - चकित बनाती ।
अपर द्रुमों पर शासन करती है दिखलाती ।।५।।

इसके फल दल से बहु-पशु-पक्षी पलते हैं।
पा इसका पंचाग रोग कितने टलते है।
दे छाया का दान सुखित सबको करता है।
स्वच्छ बना वह वायु दूपणों को हरता है ॥५६।।

मिट्टी मे मिल एक बीज, तम बन जाता है ।
जो सदैव बहुग' बीजों को उपजाता है।
प्रकट देखने मे विनाश उसका होता है।
किन्तु सृष्टि गति सरि का वह बनता सोता है ।।५७।।